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विषापहारस्तोत्रम् : १३७ त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं, दधे यदिन्द्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्यं भवत: कुतस्त्यं, तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ।।२०।। करो जगत-जन जिनसेवा, यह समझाने को सुरपति ने। दंड विनय से लिया, इसलिये प्रातिहार्य पाया उसने ।। किन्तु तुम्हारे प्रातिहार्य वसु-विधि हैं सो आए कैसे? हे जिनेन्द्र ! यदि कर्मयोग से, तो वे कर्म हुए कैसे? ।।२०।।
टीका—भो देव ! इन्द्रो विनयेन कृत्वा त्रैलोक्यस्य सेवा तस्या नियमो निश्चयस्तस्मै । यत् यदि चेद्दण्डं दधेऽदधात् तत्तर्हि तस्य इन्द्रस्य प्रातिहार्य भवतस्तव कुतस्त्यं । प्रतिहारस्य भावः प्रातिहार्यं । यदि वा युक्तोऽयमर्थः । तस्य तीर्थकृत्रामकर्मणो योगात् तव भगवतो अस्तु ।।२०।।
अन्वयार्थ----( यत्) जिस कारण से (इन्द्रः) इन्द्र ने (विनयेन ) विनयपूर्वक ( त्रैलोक्यसेवानियमाय) तीन लोक के जीवों की सेवा के नियम के लिये अर्थात् मैं त्रिलोक के जीवों की सेवा करूँगा, और उन्हें धर्म के मार्ग पर लगाऊँगा, इस उद्देश्य से (दण्डम् ) दण्ड (द ) धारण किया था । (तत्) उस कारण से (प्रातिहार्यम् ) प्रतीहारपना (तस्य स्यात् ) इन्द्र के ही हो ( भवतः कुतस्त्यम्) आपके कहाँ से आया ? (यदि वा ) अथवा (तत्कर्मयोगात्) तीर्थकरनामकर्म का संयोग होने से या इन्द्र के उस कार्य में प्रेरक होने से ( तव अस्तु ) आपके भी प्रतिहार्यप्रतीहारपना हो।
भावार्थ-जब भगवान् ऋषभनाथ भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने के लिए तैयार हुए तब इन्द्र ने आकर भगवान् की इच्छानुसार सब व्यवस्था करने के लिये दण्ड धारण किया था । अर्थात् प्रतीहार पद स्वीकार किया था । जो कि किसी काम की व्यवस्था करने के लिये दण्ड धारण किया करता है, उसे प्रतीहार कहते हैं । जैसे कि आज-कल लाठी धारण किये हुए वालिण्टयर-स्वयंसेवक । प्रतीहार के कार्य अथवा भाव को संस्कृत में प्रातिहार्य कहते हैं । हे प्रभो ! जब इन्द्र ने सब व्यवस्था