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१३६ : पंचस्तोत्र तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च, प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाने कापि निर्याति धुनी पयोधेः ।।१९।। तुम समान अति तुंग किंतु निधनों से, जो मिलता स्वयमेव । धनद आदि धनिकों से वह फल, कभी नहीं मिल सकता देव ।। जलविहीन ऊँचे गिरिवर से, नाना नदियाँ बहती हैं। किन्तु विपुल जलयुक्त जलधि से, नहीं निकलती, झरती हैं।॥ १९॥
टीका-भो देव ! अकिंचनाच्च तुंगात् उच्चस्तरात् यत्फलं प्राप्यं लभ्यं तत्फलं समृद्धादैश्वर्यात् । धनेश्वरादेर्न प्राप्यं न लभ्यं । कस्मादिवानेरिव । यथा निराम्भसोऽपि निरुदकात् उच्चतमात् अद्रेः पर्वतात् सकाशात् धुनी नदी निर्याति निर्गच्छतीत्यर्थः । साम्भसोऽपि पयोधे: समुद्रादेकापि धुनी न निर्याति । तथाऽसंगात् उच्चतमाद्भवतः सकाशात् यत्फलं लभ्यते तत्फलं समृद्धादप्यन्यस्मान्नेति तात्पर्यम् ।।१९।। __ अन्वयार्थ--(तुङ्गात् अकिंचनात् च ) उदार चित्तवाले दरिद्र मनुष्य से भी ( यत्फलम् ) जो फल ( प्राप्यम् 'अस्ति') प्राप्त हो सकता है, (तत्) वह ( समृद्धात् धनेश्वरादेः न) सम्पत्तिवाले धनाढ्यों से नहीं प्राप्त हो सकता है । ठीक ही तो है, (निरम्भसः अपि उच्चतमात् अदेः इव ) पानी से शून्य होने पर भी अत्यन्त ऊँचे पहाड़ के समान ( पयोधेः ) समुद्र से ( एका अपि धुनी) एक भी नदी (न निर्याति) नहीं निकलती है।
भावार्थ—पहाड़ के आस-पास पानी की एक बूंद भी नहीं है । परन्तु उसकी प्रकृति अत्यन्त उन्नत है, इसलिये उससे कई नदियाँ निकलती हैं, परन्तु समुद्र से जो कि पानी से लबालब भरा रहता है, एक भी नदी नहीं निकलती। इसका कारण है समुद्र में ऊँचाई का अभाव । भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आपके पास कुछ भी नहीं है । परन्तु आपका हृदय पर्वत की तरह उन्नत है—दीन नहीं है, इसलिये आपसे हमें जो चीज मिल सकती है, वह अन्य धनाढयों से मिल नहीं सकती, क्योंकि समुद्र के समान वे भी उंचे नहीं हैं अर्थात् कृपण हैं ।।१९।।