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विषापहारस्तोत्रम् : १३५ कहाँ तुम्हारी वीतरागता, कहाँ सौख्यकारक उपदेश । हो भी तो कैसे बन सकता, इन्द्रिय-सुख-विरुद्ध आदेश? ।।
और जगत को प्रियता भी तब, संभव कैसे हो सकती? " अचरज, यह विरुद्ध गुणमाला, तुम में कैसे रह सकती ? ।। १८ ।। ___टीका–भो नाथ ! त्वमुपेक्षकः क्व सुखोपदेशः क्व 1 द्वौ क्व शब्दो महदन्तरं सूचयतः । उपेक्षा-तृणादिकमिदं न त्याज्यं, इदं सुवर्णादिकं न ग्राह्यं इत्येवमाकारका बुद्धिर्यस्य स उपेक्षक एवंविधस्त्वं क्व? सुखस्योपदेशः मुखोपदेशः । स व वाटि सुखोपदेशः, वहींच्छाप्रतिकूलवादो न भवति । वा अथवाऽसावुपेक्षः क्व । सार्वजगत्प्रियत्वं क्व । यः पुमानुपेक्षकस्तस्य पुंसः सर्वं यज्जगत्तस्य प्रियत्वं न संजाघटीति । त्वमुपेक्षकस्तव सर्वजगत्प्रियत्वं । तत्तस्मात्कारणात् ते तव परमेश्वरस्य यथातथ्यं अहं नावेविचं नाबूबुधम् ।।१८।।
अन्वयार्थ—(उपेक्षकः त्वम् क्व) रागद्वेष रहित आप कहाँ ? और ( सुखोपदेशः क्व ) सुख का उपदेश देना कहाँ ? (चेत्) यदि (सः) सुख का उपदेश आप देते हैं ( तर्हि ) इच्छा के विरुद्ध बोलना ही कहाँ है ? अर्थात् आप के इच्छा नहीं है, ऐसा कथन क्यों किया जाता है ? (असौ क्व) इच्छा के प्रतिकूल बोलना कहाँ ? (वा) और ( सर्वजगत्प्रियत्वम् क्व) सब जीवों को प्रिय होना कहाँ ? इस तरह जिस कारण से आपका प्रत्येक बात में विरोध है, (तत्) उस कारण से मैं (ते यथातथ्यम् नो अवेविचम्) आपकी वास्तविकता-असली रूप का विवेचन नहीं कर सकता।
भावार्थ-हे भगवन् ! जब आप रागद्वेष से रहित हैं, तब किसी को सुख का उपदेश कैसे देते हैं ? यदि सुख का उपदेश देते हैं तो इच्छा के बिना कैसे उपदेश देते हैं ? यदि इच्छा के बिना उपदेश देते हैं, तो जगत् के सब जीवों को प्यारे कैसे हैं ? इस तरह आपकी सब बातें परस्पर में विरुद्ध हैं। दरअसल आपकी असलियत को कोई नहीं जान सकता ।।१८।।