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________________ १३४ : पंचस्तोत्र नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं, नागम्यरूपस्य तवोपकारी । तस्यैषा हेतु स्वसुखस्य भानोदधिरामविचारेण ।।१७।। प्रभु की सेवा करके सुरपति, बीज स्वसुख के बोता है। हे अगम्य अज्ञेय न इससे, तुम्हें लाभ कुछ होता है। जैसे छत्र सूर्य के सम्मुख, करने से दयालु जिनदेव । करने वाले ही को होता, सुखकर आतपहर स्वयमेव ।। १७ ।। टीका--भो देव ! नाकस्य पत्युर्देवेन्द्रस्य रम्यं परिकर्म परिचर्यादिकं तवागम्यरूपस्योपकारी न । अगम्यभलक्ष्यं रूपं यस्य स तस्य । यदि भगवत उपकारी न तर्हि किं निष्फलं जातं । तस्यैव सेवा तत्परस्य इंद्रस्यैव । स्वस्यात्मन; सुखस्य हेतुः कारणं । कस्येव? भानोरिव । यथा भानोः सूर्यस्य छत्रमादरेणोद्विभ्रत ऊर्ध्वं धरतः पुरुषस्यैवोपकारी तापहारी भवति छत्रं सूर्यस्योपकारी न भवति ।।१७।। __ अन्वयार्थ (नाकस्य पत्युः) इन्द्र की ( रम्यम्) मनोहर ( परिकर्म) सेवा ( अगम्यरूपस्य) अज्ञेय है स्वरूप जिनका ऐसे ( तव ) आपका ( उपकारि न) उपकार करनेवाली नहीं है, किन्तु जिसका स्वरूप अप्राप्य है, ऐसे (भानो:) सूर्यके लिये (आदरेण) आदरपूर्वक (छन्नम् उद्बिभ्रतः इव ) छत्र धारण करनेवाले की तरह (तस्य एव) उस इन्द्र के ही ( स्वसुखस्य) आत्म-सुख का ( हेतुः) कारण है ।। ___भावार्थ-जिस प्रकार कोई सूर्य के लिये छत्ता लगावे, तो उससे सूर्य का कुछ भी उपकार नहीं होता, क्योंकि वह सूर्य छत्ता लगानेवाले से बहुत ऊपर है, परन्तु छत्ता लगानेवाले को अवश्य ही छाया का सुख होता है । उसी प्रकार इन्द्र जो आपकी सेवा करता था ? क्योंकि वह वास्तव में आपके स्वरूप को समझ ही नहीं सका था । उल्टा शुभास्त्रव होने से उसी का भला होता था ।।१७।। क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः, स चेत्किमिच्छाप्रतिकूलवादः 1 क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वम् तन्नो यथातथ्यमवेविचंते ।।१८।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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