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विषापहारस्तोत्रम् १३३
त्रिकालज्ञ त्रिजगत के स्वामी. ऐसा कहने से जिनदेव । ज्ञान और स्वामीपन की सीमा निश्चित होती स्वयमेव || यदि इससे भी ज्यादा होती, काल जगत की गिनती और / तो उसको भी व्यापित करते. ये तव गुण दोनों सिरमौर ।। १६ ।।
टीका - भो देव ! त्वं त्रिकालं तत्त्वमवैजनासि सम । त्रयश्च ते कालश्च त्रिकालास्तेषां तत्त्वं । कुत इति अमीषां कालानां संख्यानियतेः कालास्त्रय एव संति नान्ये इति संख्यानियमात् । भो देव ! त्वं त्रिलोकी स्वामी असि त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी । तस्याः स्वामी कुत इति ? अमीषां लोकानां संख्यानियतेः । इतीति किं ? यतो लोकास्त्रय एव संति नान्ये इति संख्याया निश्चयात् ! तेऽन्ये इतरेपि काला लोकाश्च नाभविष्यन् । अभविष्यन् चेत् यदि ते काला लोकाश्चान्येऽभविष्यन् तर्हि अमून् कालान् लोकान् त्यपीओमारित्यं कात्यश्वत् काला लोकाश्च अन्ये न सन्तीत्यर्थः || १६ ||
अन्वयार्थ - ( त्वम् ) आप (त्रिकालतत्त्वम् ) भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों के पदार्थों को (अवै: ) जानते हैं, तथा ( त्रिलोकी स्वामी ) ऊर्ध्व, मध्य, पाताल, तीनों लोकों के स्वामी हैं । ( इति संख्या ) इस प्रकार की संख्या ( अमीषां नियते ) उन पदार्थों के निश्चित संख्यावाले होने से (युज्यते ) ठीक हो सकती हैं, परन्तु ( बोधाधिपत्यं प्रति न ) ज्ञान के साम्राज्य के प्रति पूर्वोक्त प्रकार की संख्या ठीक नहीं हो सकती। क्योंकि (इदम्) ज्ञान (चेत् ) यदि (ते अन्ये अपि अभविष्यन् ) वे तथा और भी पदार्थ होते (तर्हि ) तो ( अमृन् अपि ) उन्हें भी ( व्याप्स्यत्) व्याप्त कर लेता, जान लेता ।
भावार्थ- हे प्रभो ! आप तीन काल तथा तीन लोक की बात को जानते हैं, इसलिये आप का ज्ञान भी उतना ही है, ऐसा नहीं हैं । किंतु आपके ज्ञानका साम्राज्य सब ओर अनन्त हैं । जितने पदार्थ हैं, उनको तो ज्ञान जानता ही है । यदि इनके सिवाय और भी होते तो, ज्ञान उन्हें भी अवश्य ही जानता ।। १६ ।।