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१३२ : पंचस्तोत्र बात है। और आप (चित्तबाह्यः अपि) चेतन से रहित हुए भी ( सुखेन जीवति ) सुख से जीवित हैं यह आश्चर्य है।
भावार्थ-यह बात प्रसिद्ध है-यदि मोहन के शरीर पर पाँच हजार के आभूषण हैं तो वह मोहन जिस कुर्सी पर बैठेगा, उस कुर्सी पर भी पाँच हजार के आभूषण कहलाते हैं । यदि उसके शरीर पर कुछ भी नहीं है, तो कुर्सी पर भी कुछ नहीं कहलाता । पर यहाँ विचित्र ही बात है । आपके चित्त में भी कुछ नहीं है, पर जो मनुष्य आपको अपने चित्त में विराजमान करता है, उसके हाथ में सब कुछ आ जाता है । इस विरोध का परिहार यह है-यद्यपि आपके पास किसी को देने के लिये कुछ भी नहीं है,
और रागभाव न होने से आप मन में भी ऐसा विचार नहीं करते कि मैं अमुक मनुष्य के लिये अमुक वस्तु हूँ। फिर भी भक्त जीव अपनी शुभ भावनाओं से शुभ कर्मों का बन्ध कर उनके उदयकाल में सब कुछ पा लेते हैं । अथवा जो यथार्थ में आपको अपने हृदय में धारण कर लेता है, वह आपके समान ही नि:स्पृह हो जाता है-उसकी सब इच्छाएँ शान्त हो जाती हैं। वह सोचता है कि मुझे और कुछ नहीं चाहिये । मैं आज आपको चित्त में धारण कर सका, मानों तीनों लोकों की सम्पत्तियाँ हमारे हाथ में आ गईं।
दूसरा विरोध यह है कि आप चित्त-चेतन से बाह्य होकर भी जीवित रहते हैं। अभी जो चेतन से रहित हो जाता है वह मृत कहलाने लगता है, पर यहाँ उससे विरुद्ध बात है। विरोध का परिहार यह है कि, आप चित्तबाह्य-अर्थात् मन से चिन्तवन करने के अयोग्य होते हुए भी अनन्त सुख से हमेशा जीवित रहते हैं-- आप अजर-अमर हैं । तात्पर्य यह है कि आप में अनंत सुख है तथा आप इतने अधिक प्रभावशाली हैं कि आपका मन से चितवन भी नहीं कर पाते ।।१५।। त्रिकालत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकीस्वामीति संख्यानियतेरमीषाम् । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यत्तेऽन्येऽपिचेद्व्याप्स्यदमूनपीदम् ।।१६।।