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विषापहारस्तोत्रम् : १३१ स्मरण करते हैं, उनके विष वगैरह का विकार अपने आप दूर हो जाता है । कहा जाता है कि एक समय स्तोत्र के रचयिता धनंजय कवि के लड़के को साँप ने डस लिया, तब वे अन्य उपचार न कर उसे सीधे जिनमन्दिर में ले गये और वहाँ विषापहारस्तोत्र रचकर भगवान् के सामने पढ़ने लगे । उनकी सच्ची भक्ति के प्रभाव से पुत्र का विष दूर होने लगा, और वे ज्यों ही "विषापहारं मणिमौषधानि'' इस श्लोक को पढ़कर पूरा करते हैं, त्यों ही पुत्र उठकर बैठ जाता है उसका विषविकार बिल्कुल दूर हो जाता है । कवि ने स्तोत्र को पूरा किया और इसके पाठ से विष-विकार दूर हुआ था, इसलिये इसका नाम 'विषापहार' स्तोत्र प्रचलित किया ।।१४।। चित्ते न किं चित्कृतवानसि त्वम् देवः कृतश्चेतसि येन सर्वम् । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रम्, सुखेन जीवत्यपि चित्तबाहाः ।।१५।। हे जिनेश. तुम अपने मन में, नहीं किसी को लाते हो ! पर जिस किसी भाग्यशाली के, मन में तुम आ जाते हो। वह निज-करमें कर लेता है, सकल जगत को निश्चय से। तव मन ने बाहर रहकर भी, अचरज है रहता सुख से ।। १५ ।।
टीका-भो देव ! त्व चित्तेऽन्तःकरणे कंचित् कमपि पुमांस न कृतवान् असि वर्तसे । येन पुंसा चेतसि देवस्त्वं कृतः अन्त:करणे त्वं देवो धृतः । तेन पुंसा सर्वं विचित्रं जगत् हस्ते कृतं । स पुमान् सर्वं जगत् हस्तामलकवत् जानातीति भावः । चित्तबाह्योऽपि सुखेन जीवति 11१५।। ____ अन्वयार्थ—(त्वम्) आप (चित्ते) अपने हृदय में ( किञ्चित् ) कुछ भी ( न कृतवान् असि ) नहीं करते हैं—रखते हैं, किन्तु (येन) जिसके द्वारा ( देवः) आप (चेतसि ) हृदय में ( कृत्तः) धारण किये हैं ( तेन) उसके द्वारा ( सर्वम् ) समस्त ( जगत् ) संसार (हस्ते कृतम् ) हाथों में कर लिया गया हैअर्थात् उसने सब कुछ पा लिया है यह (विचित्रम् ) आश्चर्य की