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१३० : पचस्तोत्र शीलघातक और क्रोधयुक्त क्रियाओं का उन पर बुरा असर पड़ता है, जिससे उनमें गुणों का विकास न होकर दोषों का ही विकास हो जाता है । इसी प्रकार यज्ञादि धर्म करने की इच्छा से पशु-हिंसा आदि पाप करते हैं जिससे उल्टा पापबन्ध ही होता है । हे प्रभो ! यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनकी क्रियायें उन बालकों जैसी हैं जो कि तैल पाने की इच्छा से बालू के पुंज को कोल्हू में पेलते हैं। विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यन्तप्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पर्यायनामानि तवैव तानि ।।१४।। विषनाशक मणि मंत्र रसायन, औषध के अन्वेषण में । देखो तो ये भोले प्राणी, फिरे भटकते वन में। समझ तुम्हें ही मणिमंत्रादिक, स्मरण न करते सुखदायी। क्योंकि तुम्हारे ही हैं ये सब, नाम दूसरे पर्यायी ।।१४।।
टीका-विषान्यपहरतीति विषापहारस्तं । मणि तथौषधानि तथा मंत्रं च पुनः । रसायन सिद्धरसं समुद्दिश्य भ्राम्यंति भ्रमणं कुर्वति । अहो इति खेदे । त्वं इति न स्मरंति जना इति शेषः । इत्तीति किं ? एतानि विषापहारमण्यादीनि तवैव भगवतः पर्यायनामानि अपरनामानि इत्यर्थः ।।१४।।
अन्वयार्थ (अहो) आश्चर्य है कि लोग (विषापहारम् ) विष को दूर करने वाले (मणिम्) मणि को (औषधानि)
औषधियों को ( मन्त्रम् ) मन्त्र को (च) और रसायन को (समुद्दिश्य ) उद्देश्य कर ( भ्राम्यन्ति ) यहाँ-वहाँ घूमते हैं, किन्तु (त्वम् ) आप ही मणि हैं, औषधि हैं, मन्त्र हैं, और रसायन हैं (इति) ऐसा (स्मरन्ति ) ख्याल नहीं करते । क्योंकि (तानि ) मणि आदि (तव एव ) आपके ही ( पर्यायनामानि ) पर्यायवाची शब्द हैं।
भावार्थ--हे भगवन् ! जो मनुष्य शुद्ध हृदय से आपका