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________________ विषापहारस्तोत्रम् १२७ : और देव हों चाहे जैसे, पाप सहित अथवा निष्याप | उनके दोष दिखाने से ही, गुणी कहे नहिं जाते आप || जैसे स्वयं सरितपति की अति, महिमा बढ़ी दिखाती है। जलाशयों के लघु कहने से, वह न कहीं बढ़ जाती है ।। ११ ।। 1 टीका - भो देव सहरिहदिसिद्धः परो देवः । नीरजाः पापरहितः स्याद्वा अथवा स देव अघवान् पापसहितः स्यात् । तद्दोषकीत्यैव ते तव भगवतः गुणित्वं न गुणवत्ता न । निर्गत रजो यस्मात्स नीरजा: । अषं पापं विद्यते यस्य सः । तेषां हरिहरादिदेवानां दोषास्तेषां कीर्तिः कथनं तया । गुणा विद्यन्ते यस्य स तस्य भावो गुणित्वं । अम्बुराशेः समुद्रस्य स्वत एवं महिमास्ति । जलाशयस्याख्यातसरीवरादिस्तोकापवादेन न स्यात् । तुच्छत्वख्यापनलक्षणदूषणेन न भवेत् । स्तोकः स्वल्प इति यो हि अपवादस्तेन ॥११॥ अन्वयार्थ - (वा) अथवा ( स ) वह ब्रह्मादि देवों का समूह ( नीरजा : ) पाप रहित (स्यात्) हो और ( अपर: ) दूसरा देव ( अघवान् 'स्यात् ' ) पाप सहित हो, इस तरह (तोषकीर्त्या एव ) उनके दोषों के वर्णन करने मात्र से ही (ते) आपकी ( गुणित्वम् न ) गुण सहितता नहीं है । (देव) हे देव ! ( अम्बुराशेः ) समुद्र की (महिमा ) महिमा (स्वतः 'स्वात् ' ) स्वभाव से ही होती है (जलाशयस्य स्तोकापवादेन न ) ' यह छोटा है' इस तरह तालाब वगैरह की निन्दा से नहीं होती । भावार्थ - हे भगवन् ! दूसरे के दोष बतला कर हम आपका गुणीपना सिद्ध नहीं करना चाहते, क्योंकि आप स्वभाव से ही गुणी हैं। सरोवर को छोटा कह देने मात्र से समुद्र की विशालता सिद्ध नहीं होती, किन्तु विशालता उसका स्वभाव है इसलिये वह विशाल --- बड़ा कहलाता है । कर्मस्थितिं जन्तुरनेकभूमिम् नयत्यमुं सा च परस्परस्य । त्वं नेतृभावं हितयोर्भवाब्धौ, जिनेन्द्र नोनाविकयोरिवाख्यः ||१२||
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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