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१२८ : पंचस्तोत्र कर्मस्थिति को जीव निरन्तर, विविध थलों में पहुँचाता। और कर्म इन जग-जीवों को, सब गतियों में ले जाता ।। यों नौका नाविक के जैसे, इस गहरे भव-सागर में। जीव-कर्म के नेता हो प्रभु. पार करो कर कृपा हमें ।। १२ ।।
टीका- भो जिनेन्द्र ! जन्तुः प्राणी । कस्थितिमनेक भूमि नाना- । वस्थां नयति प्रापयति । कर्मणां स्थितिस्तां । च पुनः सा कास्थितिः अमुं जन्तुमनेकभूमिं नयति हि निश्चितं । भवाब्धी तयोर्जीवकर्मणोः परस्परस्यान्यो यस्य नेतृभावं नेतृत्वं प्रापकत्वं आख्यः कथयसि स्म । कयोरिव? नौनाविकयोरिव । यथा नौ विकमतेकभूमि नयति यथा नाविको नावमनेकभूमि नयति ।।१२।।
__ अन्वयार्थ (जन्तुः) जीव (कर्मस्थितिम्) कर्मों की स्थितिको (सन्तभूमिम् । अनेक अगह (नयति) ले जाता है (च) और (सा) वह कर्मों की स्थिति (अमुम् ) उस जीव को ( अनेक-भूमिम्) अनेक जगह ले जाती है । इस तरह (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्रदेव ! ( त्वम् ) आपने ( भवाब्धौ) संसाररूप समुद्र में ( नौनाविकयो: इव) नाव और खेवटिया की तरह (तयोः ) उन दोनों में (हि) निश्चय से (परस्परस्य) एक दूसरे का ( नेतृभावम् ) नेतृत्व ( आख्यः) कहा है ।
भावार्थ-सिद्धान्त-ग्रन्थों में कहा गया है कि जीव अपने भले-बुरे भावों से जिन कर्मों को बाँधता है, वे कर्म तब तक उसका साथ नहीं छोड़ते जबतक फल देकर खिर नहीं जाते । इस बीच में जीव जन्म-मरण कर अनेक स्थानों में पैदा हो जाता है । इसी अपेक्षा से कहा गया है कि जीव कर्मों को अनेक जगह ले जाता है और जीव का जन्म परणकर जहाँ-तहाँ पैदा होना आयु आदि कर्मों की सहायता के बिना नहीं होता । इसलिये कहा गया है कि कर्म ही जीव को चारों गतियों में जहाँ-तहाँ ले जाते हैं । हे भगवन् ! आपने इन दोनों में परस्पर का नेतृत्व उस तरह कहा है