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१२६ : पंचस्तोत्र
शम्भुरीश्वरः: उद्धृलितो लुठितत्वाल्लिप्त आत्मा यस्य सः । ईश्वरेण कामो दग्ध इत्यसत्यमीति सूचितं । विष्णुर्नारायणो वृन्दोपहतोपि सन् अत । सागरमध्ये सकलपरिग्रहानूल्लसन्नपि वैचित्येन सुप्तवान् । येन कारणेन भवान् त्वं अजागः । जाग्रदवस्थामिवान्वभूः अत आह । ततः सकाशात् । येन कारणेन कामेन किं वस्तु गृह्यते ? | १० ||
अन्वयार्थ - ( स्मर: ) काम ( भवता एव ) आपके द्वारा ( सुदग्धः ) अच्छी तरह भस्म किया गया है (यदि नाम शम्भुः ) यदि आप कहें कि महादेव ने भी तो भस्म किया था, तो वह कहना ठीक नहीं, क्योंकि बाद में वह ( तस्मिन्) उस काम के विषय में (उद्धलितात्मा ) कलंकित हो गया था । और ( विष्णु अपि ) विष्णु ने भी ( वृन्दोपहत: 'सन् ' ) वृन्दा-लक्ष्मी नामक स्त्री से प्रेरित हो ( अशेत) शयन किया था' ( येन ) यतश्च ( भवान् अजाग) आप जागृत रहे । अर्थात् काम निद्रा में अचेत नहीं हुए, इसलिये (किं गृह्यते) कामदेव के द्वारा आपकी कौन-सी वस्तु ग्रहण की जाती हैं, अर्थात् कोई भी नहीं ।
भावार्थ - हे भगवन् ! जगद्विजयी कामको आपने ही भस्म किया था । लोग जो कहा करते हैं कि महादेव ने भस्म किया था वह ठीक नहीं, क्योंकि बाद में महादेव ने पार्वती की तपस्या से प्रसन्न हो उसके साथ विवाह कर लिया था और काम में इतने आसक्त हुए कि अपना आधा शरीर स्त्रीरूप कर लिया था। इसी तरह विष्णु ने भी वृन्दा- लक्ष्मी के वशीभूत हो तरह-तरह की कामचेष्टाएँ की थीं, पर आप हमेशा ही आत्मव्रत में लीन रहे तथा काम को इस तरह पछाड़ा कि वह पनप नहीं सका ।
स नीरजाः स्यादपरोऽघवान्वा, तद्दोषकीयैव न ते गुणित्वम् । स्वतोम्बुराशेर्महिमा न देव ! स्तोकापवादेन जलाशयस्य ।।११।।
१. अथवा वृन्द- स्त्री पुत्रादि समस्त परिग्रह के समूह से पीड़ित हो ।