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विषापहारस्तांत्रम् : १२५ संसार में वापिस आने को स्वीकार नहीं करते, यह विरुद्ध बात है। जो मनुष्य प्रत्यक्ष-सामने रखी हुई वस्तु को छोड़कर अप्रत्यक्षपरभव में प्राप्त होनेवाली वस्तु के पीछे पड़ता है, लोक में वह अच्छा नहीं कहलाता, परन्तु आप वर्तमान के सुखों को छोड़कर भविष्यत् के सुख प्राप्त करने का इच्छा से उद्योग करते हैं, यह भी विरुद्ध बात है । पर जब इन दोनों बातों का तत्त्वदृष्टि से विचार करते हैं तब वे दोनों ठीक मालूम होने लगती हैं, जिससे आपकी यह प्रवृत्ति उचित ही ठहरती है । यद्यपि पर्यायदृष्टि से सब पदार्थों में परिवर्तन होता है -सिद्धों में भी होता है तथापि द्रव्य-दृष्टि से सब पदार्थ अपरिवर्तनरूप भी हैं। संसार में आने का कारण कर्मबन्ध है और वह कर्मबन्ध सिद्ध अवस्था में जड़मूल से ना हो जाता है इसलिये सिद्ध जीव फिर कभी लौटकर संसार में वापिस नहीं आते, यह आपका सिद्धान्त उचित ही है । इसी तरह आपने वर्तमान के क्षणभंगुर-इन्द्रियजनित सुखों से मोह छोड़ कर सच्चे आत्मसुख को प्राप्त करने का उपदेश दिया है । वह सच्चा सुख तब तक प्राप्त नही हो सकता जब तक कि यह प्राणी इन्द्रियजनित सुख में लगा रहता है। इसलिये प्रत्यक्ष के अल्प सुख को छोड़कर वीतगगता प्राप्त करने से यदि परभव में सच्चा सुख प्राप्त होता हो तो उसे कौन प्राप्त न करना चाहेगा? इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है ।।९।। स्मरः सुदग्धो भवतैव तस्मिन् , उधूलितात्मा यदि नाम शंभुः । अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः, किं गृह्यते येन भवानजागः ।।१०।। काम जलाया तुमने स्वामी, इसीलिये यह उसकी धूल । शंभु रमाई निज शरीर में, होय अधीर मोह में भूल ।। विष्णु परिग्रहयुत सोते हैं, लूटे उन्हें इसी से काम । तुम निग्रंथ जागते रहते, तुमसे क्या छीने वह वाम ।। १० ।।
टीका-भो देव । भवतैव त्वयैव । स्मरः कामः । सुदग्धः सुखेन दग्ध इत्यर्थः । यदि नाम निश्चयेन । तस्मिन्मस्मितात्मनि मस्मरूपे