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________________ १२४ : पंचस्तोत्र तवानवस्था परमार्थतत्त्वम् त्वया न गीतः पुनरागमश्च । दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीः, विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वम् ।।९।। अनवस्था को परम तत्त्व, तुमने अपने मतमें गाया । किन्तु बड़ा अचरज यह भगवन्, पुनरागमन न बतलाया || त्यों आशा करके अदृष्टकी, तुम सुदृष्ट फलको खोते। यों तब चरित दिखें उलटे से, किंतु घटित सबही होते ।। ९ ।। टीका - भो नाथ ! त्वं विरुद्धवृत्तोऽपि विरुद्धचरणोऽपि समंजसः समीचीनः । लोकचरणाद्विरुद्धं वृत्तमाचरणं यस्य सः । तव मतेऽनवस्था परमार्थतत्त्वं वर्तते । अनवस्था विरुद्धपक्षे भ्रमणं । विरोधपरिहारपक्षे सर्वथा नित्यत्वमेकत्वमित्याद्ये करूपताऽवस्था तदभावोऽनवस्था निश्चितार्थतत्त्वं । त्वया भगवता पुनरागमः पुनरावत्तिः न गीतः न कथितः । भो देव ! च पुनः । त्वं दृष्टं दृष्टफलं । विहाय परित्यज्य | अदृष्टमदृष्टफलमैषीर्वाछसि स्म विरुद्धपक्षे दृष्टं दृष्टफलं । विरोधपरिहारपक्षे इन्द्रियसुखं । अदृष्टं अदृष्टफलं विरुद्धपक्षे । विरोधपरिहारपक्षेतीन्द्रियसुखं । इति यावत् । विरुद्धपक्षे पुनरागमनं पुनरावृत्तिः । विरोधपरिहारपक्षे मुक्तजीवानां पुनरागमनाभावः ॥ ९ ॥ ॥ अन्वयार्थ - ( अनवस्था ) भ्रमणशीलता, परिवर्तनशीलता (तव ) आपका ( परमार्थतत्वम् ) वास्तविक सिद्धान्त है (च) और ( त्वया ) आपके द्वारा (पुनरागमः न गीत: ) मोक्ष से वापिस आने का उपदेश दिया नहीं गया है तथा (त्त्वम्) आप (दृष्टम् ) प्रत्यक्ष इस लोकसम्बन्धी सुख (विहाय ) छोड़कर (अदृष्टम् ) परलोकसम्बन्धी सुख को (ऐषीः ) चाहते हैं, इस तरह (त्वम् ) आप ( विरुद्धवृत्तः अपि ) विपरीत प्रवृत्तियुक्त होने पर भी ( समंजस : ) उचितता से युक्त हैं । भावार्थ --- जब आपका सिद्धान्त है कि सब पदार्थ परिवर्तनशील हैं - सभी में उत्पाद, व्यय, धौव्य होता है तब सिद्धों में भी परिवर्तन अवश्य होगा । किन्तु आप उनके पुनरागमन को
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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