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विषापहारस्तोत्रम् : १२१ (अशक्तः सन् ) असमर्थ हो ( एवम् ) ऐसे ही-बिना लिये-दिये ही (सव्याजम्) कपट सहित (दिवसम्) दिन को (गमयति ) बिता देता है, किन्तु आप ( नताय ) नम्र मनुष्य के लिये ( क्षणेन ) क्षणभर में ( अभिमतम् ) इच्छित वस्तु ( दत्से) दे देते हैं।
भाषार्थ-लोग सूर्योदय होते ही हाथ जोड़ शिर झुकाकर 'नमोनारायण' कहते हुए सूर्य को नमस्कार करते हैं और उससे इच्छित वरदान मांगते हैं, पर वह 'आज दूंगा कल दूंगा' इस तरह आशा दिखाता हुआ बिता देता है, किसी को कुछ देता-लेता नहीं है,-असमर्थ जो ठहरा । पर आप नम्र मनुष्य को उसकी इच्छित वस्तु क्षणभर में दे देते हैं । इस तरह आप सूर्य से बहुत बढ़कर हैं । उपैति भक्त्त मुम्हः सुरतानि, त्वयि स्नानाद्विमुशाचा दुःखम् । सदावदातद्युतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ।।७।। भक्तिभाव से सुमुख आपके रहनेवाले सुख पाते। और विमुख जन दुख पाते हैं, रागद्वेष नहिं तुम लाते ।। अमल सुदुतिमय चारु आरसी, सदा एक सी रहती ज्यों । उसमें सुमुख विमुख दोनों ही, देखें छाया ज्यों की त्यों ।। ७ । ___टीका-भो नाथ ! त्वयि परमेश्वरे ! सुमुखः सम्यग्दृष्टिः । भक्त्या कृत्वा । स्वभावात् सहजतया । सुखानि सौधर्मेन्द्रनागेन्द्रचक्रयादिजनितनानासातानि । उपैति प्राप्नोतीति भावः | च पुनस्त्वयि विषये विमुखः प्राणी मिथ्यादृष्टिदुःखं नारकतिर्यनिगोदजनिताऽसातमुपैति । तयो क्तिकाभाक्तिकयोस्त्वं भगवानेकरूप: । अवभासि शोभसे । के इव । आदर्श इव यथा आदर्शो मुकुरः सुमुखविमुखयोरंगिनोरेकरूप: शोभते । कीदृशस्त्वं ? सदाऽवदाता निर्मला द्युतिर्यस्य सः ।।७।।
अन्वयार्थ-(त्वयि सुमुखः ) आपके अनुकूल चलनेवाला पुरुष (भक्त्या ) भक्ति से ( सुखानि ) सुखों को ( उपैति } प्राप्त होता है (च) और (विमुखः) प्रतिकूल चलनेवाला पुरुष (स्वभावात् ) स्वभाव से ही ( दुःखम् 'उपैति') दुःख पाता है।