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१२० : पंचस्तोत्र
भावार्थ-जिस तरह बालकों की चिकित्सा करने वाला वैद्य अपनी भूल से पैदा किये हुए वात, पित्त, कफ आदि दोषों से पीड़ित बालकों के अच्छे-बुरे का ज्ञान कराकर उन्हें नीरोग बना देता है और अपने 'बाल वैद्य' इस नाम को सार्थक बना लेता है उसी तरह आप भी हित और अहित के निर्णय करने में असमर्थ बाल अर्थात् अज्ञानी जीवों को हित-अहित का बोध कराकर संसार के दुःखों से छुड़ाकर स्वस्थ बना देते हैं । इस तरह आपका भी 'बाल वैद्य' अर्थात् 'अज्ञानियों के वैद्य यह नाम सार्थक सिद्ध होता है ।।५।। दाता न हर्ता दिवसं विवस्वानद्य श्व इत्यच्युत ! दर्शिताशः । सव्याजमेवं गमयत्यशक्तः क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय ।।६।। देने लेने का काम कुछ, आज कल्य परसों करके। दिन व्यतीत करता अशक्त रवि, व्यर्थ दिलासा देकर के। पर हे अच्युत, जिनपति, तुम यों पल्ल भर भी नहिं सोते हो। शरणागत नत भक्तजनों को, त्वरित इष्ट फल देते हो ।।६।। ___टीका--भो अच्युत ! नत्ताय नम्राय । क्षणेन क्षणमात्रेण अभिमतं मनोऽभिलषितं । दत्से यच्छसि । भो त्रिलोकैकनाथ ! अभिमुखायाभिमतफलं त्वदन्यः कोऽपि दातुं न प्रभवतीति भावार्थः । न च्युतः सम्यग्दर्शनादिस्वभावो यस्य स तस्यामन्त्रणे भो अच्युत ! विवस्वान् सूर्य इव त्वदन्यो अशक्तोऽसमर्थः पुमान् स दाता न हर्ता दातुमशक्यत्वात् । अद्य श्व इति दर्शिता आशा वाँछा येन सः । पक्षे प्रदर्शित दिग्मण्डलो भूत्वा । एवं सव्याजं यथा स्यात्तथा । दिवसं गमयति कालयापना करोतीत्यर्थः ।।६।।
अन्वयार्थ (अच्युत) हे उदारता आदि गुणों से रहित जिनेन्द्रदेव ! (विवस्वान् ) सूर्य ( न दाता 'न' हर्ता) न देता है न अपहरण करता है सिर्फ ( अद्यश्वः) आजकल ( इति ) इस तरह (दर्शिताशः) आशा [ दूसरे पक्ष में दिशा को] दिखाता हुआ