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विषापहारस्तोत्रम : ११९ की, जानने की अथवा कहने की शक्ति नहीं है, जिसका तात्पर्य अर्थ यह होता है कि मुझमें भी उसकी शक्ति नहीं है, तब उन्हें भी अन्त में स्वीकार करना पड़ता है कि इन्द्रने जो शक्ति का अभिमान छोड़ा था वह ठीक ही किया था और मेरे द्वारा की गई यह स्तुति भी मेरी अशक्ति की कथा ही हो ।।४।। व्यापीडितं बालमिवात्मदोषैरुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम् । हिताहितान्वेषणमान्यभाज: सर्वस्यजन्तोरसि बालवैद्यः ।।५।। बालक सम अपने दोषों से, जो जन पोड़ित रहते हैं। उन सबको हे नाथ, आप, भवताप रहित नित करते हैं ।। यो अपने हित और अहित का, जो न ध्यान धरनेवाले। उन सबको तुम बाल-वैद्य हो, स्वास्थ्य-दान करने वाले ।। ५ ।।
टीका-हे ब्रह्मन् ! त्वं सर्वस्य जन्तोः सकलभव्यप्राणिगणस्य । बालवैद्योऽसि बालचिकित्सोऽसि । संसारवर्तिनां भव्यजीवानां त्वमेव परोपकारी नान्य इति तात्पर्यार्थः । कथंभूतस्य जन्तोः मोक्षी मोक्षकारणं हितं । संसार: संसरिकारणं अहितं । तयोरन्वेषणे विचारणे मान्धं । मन्दत्वं जडत्वं भजतीति । तस्य कुतो वैद्योऽसि ? यतः कारणात् त्वदाश्रितं सर्वं लोकमुल्लाघतां नीरोगतामबाधता प्रापयसीत्यर्थः । कथंभूतं लोकं ? आत्मदोषैः पूर्वजन्मोपार्जितकर्मभियापीडितमबाधितं. कमिवं? बालमिव । यथा कश्चन बालवैद्यो बालमुल्लाघतां नीरोगतां नयति । कीदृशं बालं? आत्मदोषैवार्तादिभिर्व्यापीडितं व्याहतम् ।।५।।
अन्वयार्थ ( त्वम्) आपने ( बालम् इव ) बालक की तरह { आत्मदोषैः) अपने द्वारा किये गये अपराधों से ( व्यापीड़ितम्) अत्यन्त पीड़ित ( लोकम् ) संसारी मनुष्यों को ( उल्लाघताम) नीरोगता (अवापिपः) प्राप्त कराई है। निश्चय से आप (हिताहितान्वेषणमान्यभाजः) भले-बुरे के विचार करने में मूर्खता को प्राप्त हुए (सर्वस्य जन्तोः) सब प्राणियों के (बालवैद्यः) बालवैद्य हैं।