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१९८ : पंचस्तोत्र
तुम सब-दशी देव, किन्तु, तुमको न देख सकता कोई । तुम सबके ही ज्ञाता, पर तुमको न जान पाता कोई || 'कितने हो' 'कैसे हों' यों कुछ कहा न जाता हे भगवान् । इससे निज अशक्ति बतलाना, यही तुम्हारा स्तवन महान् ॥ ४ ॥
टीका - भो जिन ! ततः कारणात् तब भगवतः स्तुतिस्त्वमेतावान् ईदृश इति प्रमातुं न पायसे । यतस्ततः स्तवनकरणे अशक्तिकथा तवास्तु भूयात् । अशक्तिः अशक्या कथा यस्यां सा । हे भगवन् ! त्व विश्वदृश्वा । विश्व पश्यतीति विश्वदृश्वा सकलजीत्रादिपदार्थ साक्षात् द्रष्टेत्यर्थः । त्वं सकलैरदृश्यः निरूपत्वात् । त्वमशेषं लोकालोकाकाशं विद्वान् जानन् । केवलज्ञानविराजमानत्वात् निखिलैरवेद्यः, न वेतुं शक्यः त्वं कियान कियत्परिमाणाधिकरणः कीदृशः इति वक्तुं अशक्य, न
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शक्य: अशक्यः ||४||
अन्वयार्थ – (त्वम् ) आप ( विश्वदृश्वा अपि) सबको देखने वाले हैं किन्तु (सकलैः ) सबके द्वारा ( अदृश्य ) नहीं देखे जाते, आप ( अशेषम् विद्वान् ) सबको जानते हैं पर ( निखिलैः अवेद्यः ) सबके द्वारा नहीं जाने जाते। आप (कियान् कीदृशः ) कितने और कैसे हैं (इति) यह भी ( वक्तुम् अशक्यः ) नहीं कहा जा सकता (ततः) उससे ( तव स्तुतिः ) आपकी स्तुति ( अतिशक्तिकथा ) मेरी असामर्थ्य की कहानी ही (अस्तु) हो । भावार्थ- आप सबको देखते हैं पर आपको देखने की किसी में शक्ति नहीं है। आप सबको जानते हैं पर आपको जानने की किसी में शक्ति नहीं है । आप कैसे और कितने परिमाण वाले हैं यह भी कहने की किसी में शक्ति नहीं है। इस तरह आपकी स्तुति मानों अपनी अशक्ति की चर्चा करना ही है । इससे पहले के श्लोक में कवि ने कहा था कि आपकी स्तुति से इन्द्र ने अभिमान छोड़ दिया था पर मैं नहीं छोड़ेंगा अर्थान् मुझमें स्तुति करने की शक्ति हैं पर जब वे स्तुति करना प्रारंभ करते हैं और प्रारम्भ में ही उन्हें कहना पड़ता है कि सब में आपको देखने