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विषापहारस्तोत्रम् : ११७ नमाज हा नाशिक महंग्रहामि स्तवनानुबंधम् । स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं वातायनेनेव निरूपयामि ।।३।। शक्र सरीखे शक्तिवान ते, तजा गर्व गुण गाने का। किन्तु मैं न साहस छोड़ेगा, विरदावली बनाने का ।। अपने अल्पज्ञान से ही मैं, बहुत विषय प्रकटाऊँगा । इस छोटे वातायन से ही, सारा नगर दिखाऊँगा ।। ३ ।।
टीका-शक्रो देवेन्द्रः । स्तवनानुबन्धं स्तवनसम्बन्धिनं । शकनाभिमानं त्वा स्तोतुमहं शक्त इत्यभिमानं । तत्याज अहजात् । अहं स्तवनानुबन्धं । शकनाभिमानं । न त्यजामि न जहामि । स्तवनस्य अनुबन्धो यस्मिन् स तं । स्वल्पेन बोधेन । ततः इन्द्रात् स्वल्पज्ञानेनाधिकाथं प्रभूतार्थं । अहं निरूपयामि बंभणीमि । केनेव ? वातायनेनेव ! यथा वातायनेन गवाक्षेण अधिकार्थं स्थूलतरं गजाद्यर्थं स्थूलतरं गजाद्यर्थं कश्चित् निरूपयति ।।३।। ___ अन्वयार्थ—(शक्रः) इन्द्र ने (शकनाभिमानम् ) स्तुति कर सकने की शक्ति का अभिमान ( तत्याज) छोड़ दिया था। किंतु ( अहम् ) मैं (स्तवनानुबन्धम् ) स्तुति के उद्योग को (न त्यजामि) नहीं छोड़ रहा हूँ । मैं ( वातायनेन इव ) झरोखे की तरह ( स्वल्पेन बोधेन ) थोड़े से ज्ञान के द्वारा ( ततः ) झरोखे और ज्ञान से ( अधिकार्थम् ) अधिक अर्थ को ( निरूपयामि ) निरूपित कर रहा हूँ। __ भावार्थ-जिस तरह छोटे से झरोखे में झाँक कर उससे कई गुणी वस्तुओं का वर्णन किया जाता है, उसी तरह मैं भी अपने अल्प ज्ञान से जानकर आपके गुणों का वर्णन कर रहा हूँ । मुझे अपनी इस अनोखी सूझ पर हर्ष और विश्वास दोनों है । इसलिये मैं इन्द्र की तरह अपनी शक्ति को नहीं छिपाता ।।३।। त्वं विश्वदृश्या सकलैरदृश्यो विद्वानशेषं निखिलैरवेद्यः । वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्यः स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ।।४।।