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११६ : पंचस्तोत्र
टीका--अद्य मे ममासौ वृषभः श्रीमदादिब्रह्मा स्तुत्यस्तवनीयः । कृत्यानि कर्तरि षष्ठी चेति में इत्यत्र षष्ठी । असौ कः ? य: श्रीमदादिब्रह्मा योगिभिरपि ब्रह्मर्द्धिसम्पन्नैरपि स्तोतुमशक्यः । कीदृशोऽसौ ? एको:सहायः सन् परैरन्यपुरुषरचिन्त्यं मनसाप्यस्मरणीयं । कृतयुगारम्भे कल्पवृक्षाद्यभावेन जीवनोपायाभावे जिजीविषया संक्लिश्यमानप्राणिप्राणधारणोपायप्रदर्शनस्वरूपं युगभार वहन् धरन् । भानोः सूर्यस्या.. प्रवेशेऽप्रचारे प्रदीपः किं न प्रविशति ? अपि तु प्रविशतीत्यर्थः ।।२।।
अन्वयार्थ-(परैः ) दूसरों के द्वारा ( अचिन्त्यम् ) चितवन करने के अयोग्य (युगभारम् ) कर्मयुग के भार को (एकः) अकेले ही ( वहन्) धारण किये हुए तथा ( योगिभिः अपि ) मुनियों के द्वारा भी (स्तोतुम् अशक्यः) जिनकी स्तुति नहीं की जा सकती है एस ( असौ वृषभः) वे भगवान् वृषभनाथ ( अद्य) आज ( मे स्तुत्यः ) मेरे द्वारा स्तुति करने के योग्य हैं अर्थात् आज मैं उनकी स्तुति कर रहा हूँ । सो ठीक है ( भानोः) सूर्य का (अप्रवेश ) प्रवेश नहीं होने पर (किम् ) क्या ( प्रदीप:) दीपक (न विशति ) प्रवेश नहीं करता ? अर्थात् करता है। ____भावार्थ-भगवन् ! यहाँ जब भोगभूमि के बाद कर्मभृमि का समय प्रारम्भ हुआ था उस समय की सब व्यवस्था आप अकेले ही कर गये थे। इस तरह आपकी विलक्षण शक्ति को देखकर योगी भी कह उठे कि मैं आपकी स्तुति नहीं कर सकता । पर मैं आज आपकी स्तुति कर रहा हूँ, इसका कारण मेरा अभिमान नहीं है, पर मैं सोचता हूँ कि जिस गुफा में सूर्य का प्रवेश नहीं हो पाता उस गुफा में भी दीपक प्रवेश कर लेता है । यह ठीक है कि दीपक सूर्य की भाँति गुफा के सब पदार्थों को प्रकाशित नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी योगियों की तरह आपकी पूर्ण स्तुति नहीं कर सकूँगा, फिर भी मुझ में जितनी सामर्थ्य है उससे बाज क्यों आऊँ ? ।।२।।
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