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विशपहारस्तोत्रम् : ११५ अन्वयार्थ- ( स्वात्मस्थितः अपि सर्वगतः) आत्मस्वरूप में स्थित होकर भी सर्वव्यापक, (समस्तव्यापारवेदी अपि) सब व्यापारों के जानकार होकर भी (विनिवृत्तसङ्गः ) परिग्रह से रहित, (प्रवृद्धकालः अपि अजरः) दीर्घ आयुवाले होकर भी बुढ़ापे से रहित तथा ( वरेण्यः) श्रेष्ठ (पुराणः पुरुषः) प्राचीन पुरुषभगवान् वृषभनाथ (न:) हम सबको ( अयायात् ) विनाश से (पायात् ) बचावें--रक्षित करें ।।
भावार्थ-फ्लोक में विरोधाभाम अलङ्कार है । इस अलङ्कार में सुनते समय विरोध मालूम होता है, पर बाद में अर्थ का विचार करने से उसका परिहार हो जाता है । देखिये-जो अपने स्वरूप में स्थित होगा वह सर्वव्यापक कैसे होगा? यह विरोध है; पर उसका परिहार यह है कि पुराण पुरुष आत्म-प्रदेशोंकी अपेक्षा अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, पर उनका ज्ञान सब जगह के पदार्थों को जानता है । इसलिये ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत है । जो सम्पूर्ण व्यापारों को जानने वाला है वह परिग्रहरहित कैसे हो सकता है ? यह विरोध है । उसका परिहार यह है कि आप सर्व पदार्थों के स्वाभाविक अथवा वैभाविक परिवर्तनों को जानते हुए भी कर्मों के सम्बन्ध से रहित हैं । इसी तरह दीर्घायु से सहित होकर भी बुढ़ापे से रहित हैं, यह विरोध है । उसका परिहार इस तरह है कि महापुरुषों के शरीर में वृद्धावस्था का विकार नहीं होता अथवा शुद्ध आत्मस्वरूप की अपेक्षा वे कभी भी जीर्ण नहीं होते । इस तरह श्लोक में विघ्न बाधाओं से अपनी रक्षा करने के लिये पुराण पुरुष से प्रार्थना की गई है ।।१।। परैरचिन्त्यं युगभारमेक: स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योऽय मेऽसौ वृषभो न मानो: किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ।।२।। जिसने पर-कल्पनातीत, युग-भार अकेले ही झेला । जिसके सुगुन-गान मुनिजन भी, कर नहिं सके एक वेला ।। उसी वृषभ की विशद विरद यह, अल्पबुद्धि जन रचता है। जहाँ न जाता भानु वहाँ भी. दीप उजेला करता है।॥२॥