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१२२ : पंचस्तोत्र किन्तु ( त्वम् ) आप ( तयोः ) उन दोनों के आगे ( आदर्श इव) दर्पण की तरह (सदा) हमेशा (अवदातद्युतिः) उज्ज्वल कान्तियुक्त तथा (एकरूपः) एक सदृश ( अवभासि ) शोभायमान रहते हैं।
भावार्थ-जिस प्रकार दर्पण के सामने मुँह करनेवाला पुरुष दर्पण में अपना चेहरा देखकर सुखी होता है और पीठ देकर खड़ा हुआ पुरुष अपना चेहरा न देख सकने से दुःखी होता है; उनके सुख-दुःख में दर्पण कारण नहीं है । दर्पण तो दोनों के लिये हमेशा एक रूप ही है, पर वे दो पनुष्य अपनी अनुकूल और प्रतिकूल क्रिया से अपने आप सुखी और दुःखी होते हैं, उसी प्रकार जो मनुष्य आपके विषय में सुमुख होता है अर्थात् आपको पूज्य दृष्टि से देखता है-आपकी भक्ति करता है वह शुभ कर्मों का बंध होने अथवा अशुभ कर्मों की निर्जरा होने से स्वयं सुखी होता है और जो आपके विषय में विमुख रहता है अर्थात् आपको पूज्य नहीं समझता और न आपकी भक्ति ही करता है वह अशुभ कर्मों का बन्ध होने से दुःख पाता है । उनके सुख-दुःख में आप कारण नहीं हैं। आप तो हमेशा दोनों के लिये रागद्वेष रहित और चैतन्य-चमत्कारमय एकरूप ही हैं। अगाधताब्धेः स यतः पयोधिर्मेरोश्च तुङ्गा प्रकृतिः स यत्र । द्यावापृथिव्योः पृथुता तथैव, व्यापत्वदीया भुवनान्तराणि ।।८।। गहराई निधि की, ऊँचाई गिरि की, नभ-थल को चौड़ाई। वहीं वहीं तक जहाँ जहाँ तक, निधि आदिक दें दिखलाई ।। किन्तु नाथ, तेरी अगाधता और तुंगता, विस्तरता। तीन भुवन के बाहिर भी है, व्याप रही हे जगत्पिता ।। ८ ।।
टीका-भो देव ! अब्धेः समुद्रस्यागाधता गंभीरता यतो यावत्क्षेत्रं स पयोधिः समुद्रोऽस्ति तावत्येवास्ति। च पुनः । मेरोमदरस्य तुंगा प्रकृतिरुनतस्वभावो यत्रेति यावत्क्षेत्रं स मेरुरस्ति तावत्येवास्ति ।