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________________ विषापहारस्तोत्रम् : ११३ आश्रय लेता है, उसे छाया अपने आप मिलती ही है, फिर छाया माँगने से क्या लाभ? और हे देव, यदि आपको मुझे कुछ देने की इच्छा ही है और उसके लिये अनुरोध भी, जो यही लाबान दिजियो कि बेरी -पक्ति दृढ़ बनी रहे। भक्तिमें लीन कविराज कहते हैं हे प्रभो ! इस बालक का विष उतारनेके लिये मैं मणि-मन्त्र औषधिकी खोजमें यत्र-तत्र भटकने वाला नहीं, मुझे तो आपरूप कल्पवृक्ष का ही आश्रय है। सत्य है कि हे भगवन् ! लोग विषापहार मणि, औषधियों, मन्त्र और रसायन की खोज में भटकते फिरते हैं; वे यह नहीं जानते कि ये सब आपके ही पर्यायवाची नाम हैं । इधर स्तोत्र-रचना हो रही थी उधर पुत्र का विष उतर रहा था । स्तोत्र पूरा होते-होते बालक निर्विष होकर उठ बैठा । चारों ओर जैनधर्म की जय-जयकार गूंज उठी थी । धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई। विषापहार स्तोत्र की आराधना करनेवाले भव्यात्मा को मनवचन-काय की शुद्धिपूर्वक प्रतिदिन प्रातः इसका पाठ करना चाहिये।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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