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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : १९१
जो प्रभुनाम मंत्र मन मनवांछित फल जिनपद माँहि । माया मगन फिरयो अग्यान मोह तिमिर छायौ दृग मोहि
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तौ दुर्जन मुझ संगति सुन्यौं कान, जस
पूजे
भक्ति हेतु न भयौ चित
भव-सागर महँ फिरत अजान मैं तुव सुजस सुन्यौ नहिं कान ।। धरै । तासौं विपति भुजंगम डरें ॥ ३६ ॥ मैं पूरब भव पूजे नाहिं ।। करहिं रंकजन मुझ अपमान ||३७|| जन्मान्तर देख्यौ नहिं तोहि || गहँ । मरम छेदके कुवचन कहैं ||३८|| पाय नैनन देख्यों रूप अघाय || चाव। दुखदायक किरिया बिन भाव ।। ३९ ।। पाल । पतित- उधारन दीनदयाल || शीस । मुझ दुख दूर करहु जगदीस ४० सार । असरन सरन सुजस विसतार ।। पाय । तो मुझ जनम अकारथ जाय । ४१ ।। दयानिधान । जग तारन जगपति जगजान || निकासि । निरने याम देहु सुखरासि । ४२ ।। बहुविधि - भक्ति करो मन लाय ।। यह सेवा - फल दीजै मोहि ॥। ४३ ।।
महाराज
सरनागत
सुमरन करहुँ नाय निज कर्मनिकंदन महिमा नहिं सेये प्रभु तुमरे सुरगन बन्दित दुखसागरत मोहि मैं तुम चरन कमल गुन गाय | जन्म-जन्म प्रभु पावहुँ तोहि ।
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दोकान्त बेसरी छंद । षट्पद ।
इहि विधि श्रीभगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं । ते निज पुण्य-भंडार, संचि चिर पाप प्रनासहिं || रोम-रोम हुलसत अंग, प्रभु गुन मन ध्यावहिं । स्वर्ग-संपदा भुंज, वेग पंचमगति पावहिं || यह कल्याणमन्दिर कियौ, 'कुमुदचन्द्र' की बुद्धि । भाषा कहत 'बन्दारसी' कारन समकित सुद्धि ॥ ४१ ॥ ।
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