________________
११० : पंचस्तोत्र
छवि हत होहिं अशोक दल, तुव भामण्डल देख । वीतराग के निकट रह, रहत न राग विसेख ।।२५।। सीख कहै . निलोड .को, यह सुरदुंदुभि नाद । सिवपथ सारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद ।।२६।। तीन छत्र त्रिभुवन उदित. मुक्तागन छवि देत । त्रिविध रूप धरि मनहुँ शशि, सेवज नखत समेत ।।२७।
पद्धरि छन्द प्रभु तुम सरीर दुति रतन जेम । परताप पुंज जिमि सुद्ध हेम ।। अति धवल सुजस रूपा समान । तिनके गढ़ तीन विराजमान ।।२८।। सेवहिं सुरेन्द्र कर नमति भाल । तिन सीस मुकुट तज देहिं माल ।। तुव चरण लगत लहलहैं प्रीति । नहिं रमहि और जन सुमन रीति ।।२९।। प्रभु भोग विमुख तन कर्म दाह । जन पार करत भव-जल निवाह ।। ज्यौं माटी कलस सपक्व होय। लै भार अधोमुख तिरहि तोय ।।३०।। तुम महाराज निर्द्धन निरास । तज विभव-विभव सब जग विकास ।। अक्षर स्वभावसैं लिखै न कोय । महिमा अनन्त भगवंत सोय ।।३१।। कोप्यौ सु कमठ निज बैर देख । तिन करी धूल वर्षा विसेख ।। प्रभु तुम छाया नहिं भई हीन । सो भयो पापि लम्पट मलीन ॥३२।। गरजंत घोर घन अन्धकार | चमकन्त विज्जु जल मुसलधार ।। वरपंत कमठ धर ध्यान रुद्र । दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ।।३३।।
वस्तु छन्द मेघलाली मेघलाली, आप बल फोरि । भेजे तुरन्त पिचासगन, नाथ पास उपसर्ग कारन । अग्निजाल झलकंत मुख धुनि, करत तिमि मत्तवारन ।। कालरूप विकराल तन, मुण्डमाल तिह कंठ । है निसंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़गंठ ||३४।।
चौपाई जे तुव चरन कमल तिहुँकाल । सेवहिं तज माया-जंजाल ।। भाव भगति मन हरष अपार । घन्य-धन्य जग तिन अवतार ।।३५।।