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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : १०९ जिन सब देव किसे बस बाम । तै छिनमें जीत्यौ सो काम ।। ज्यों जल करै अग्नि कुल हानि । बड़नवाल पीवै सो पानि ।।१२।। तुम अनन्त गरुवा गुन लिये। क्योंकर भवित धरूँ निज हिये ।। है लघुरूप तिरहि संसार । यह प्रभु महिमा अथक अपार ।।१३।। क्रोध निवारि कियौ मन शांति । कर्म सुभट जीते किहिं भाँति ।। यह पटतर देखहु संसार । नील विरख ज्यौं दहै तुषार ।।१४।। मुनिजन हिये कमल निज टोहि । सिद्धरूपसम ध्यावहिं तोहि ।। कमल-कनिका गिन नहिं ओर । कमल बीच उपजन की ठौर ।।१५।। जब तुम ध्यान धरै मुनि कोय। तब विदेह परमातम होय ।। जैसे धातु शिलातनु त्याग ! कनक स्वरूप ध जब आग ।।१६।। जाके मन तुम करहु निवास । विनस जाय क्यों विग्रह तास ।। ज्यौं महन्त विच आवै कोय । विग्रह मूल निवारै सोय ।।१७।। करहिं विबुध जे आतम ध्यान । तुम प्रभावतें होय निदान ।। जैसे नीर सुधा अनुमान ! पीवत विष विकारको हान ।।१८।। तुम भगवन्त विमल गुण लीन । समलरूप मानहिं मति हीन ।। ज्यों पीलिया रोग दृग गहै। वर्न विवर्न संख सौं कहै ।।१९।।
दोहा निकट रहत उपदेश सुनि, तरुवर भये अशोक । ज्यों रवि ऊगत जीन सब, प्रगट होत भुविलोक ।।२०।। सुमन-वृष्टि जो सुर करहिं, हेठ' वीट मुख सोहि । त्यों तुम सेवत सुमन 'जन, बंध अधोमुख होहिं ।।२१।। उपजी तुम हिय उदधितै, वानी सुधा समान । जिहिं पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर पदयान |१२२।। कहहिं सार तिहुँलोकको, ये सुरचामर दोय । भाव सहित जो जिन नमें, तसु गति ऊरध होय ।।२३।। सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर । श्याम सुतन घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ।।२४।।
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