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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : १०५ भुवने इह जन्मनि भवांतरेऽपि वा त्वमेव स्वामी प्रभु या भवतात् । कथं भूताया भक्तेः ? सन्तत्या निरंतरेण संचिता कृता तस्याः । कथंभूतस्य मे? त्वमेव एक अद्वितीय शरणं यस्य स तस्य ।।४२।।।
अन्वयार्थ (नाथ) हे नाथ ! (त्वदेकशरणस्य मे) केवल आप ही की है शरण जिसको ऐसे मुझे (सन्ततसञ्चित्तायाः) चिरकालसे सञ्चित-एकत्रित हुई ( भवदघिसरोरुहाणाम् ) आपके चरण कमलोंको ( भक्तेः) भक्तिका ( यदि) यदि (किमपि फलम् अस्ति ) कुछ फल हो, (तत्) तो उससे ( शरण्य ) हे शरणागत प्रतिपालक ! (त्वम् एव) आप ही (अत्र भुवने) इस लोकमें और ( भवान्तरे अपि) परलोक में भी (स्वामी ) मेरे स्वामी ( भूयाः ) होवें ।।
भावार्थ हे भगवन् ! स्तुति कर मैं आपसे अन्य किसी फलकी चाह नहीं रखता । सिर्फ यह चाहता हूँ कि आप ही मेरे हमेशा स्वामी रहें । अर्थात् जब तक मुझे मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक आप ही मेरे स्वामी रहें । "तुम होहु भव भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहूँ" ।।४२।। इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र !
सांद्रोल्लसत्पुलककञ्चकितांगभागाः । त्वद्विम्बनिर्मलमुखाम्बुजवद्धलक्ष्या यं संस्तवं तव विभो ! रचयंति भव्याः ।।४३।।
आर्या जननयनकुमुदचन्द्र ! प्रभास्वरा: स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ।।४४।। आनन्द में पुलक, गद्गद कंठ होके,
तेरे मुखाज पर आँख लगा अनोखीजो चित्त को स्थिर किये विधि से महेश,
सप्रेम यों स्तव रचे तब भव्यजीव ।। ४३ ।।