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कल्याणदिर स्नोत्र : १०३ पुनः पुनश्चिन्तनरहितस्तर्हि बंध्योऽस्म्यहं अहं निष्फल एव । तव पादा एवं पंकज त्वत्पादपकजं । हा इति खेदे हतोऽस्मि पीडितोऽस्मि । कथंभूतं त्वत्पादपङ्कजं? नि:संख्याः संख्यारहिता ये सारा: पदार्थास्तेषां शरणं गृहं । पुनः कथंभूत ? सादिता रिपवः कर्मवैरिणो येन तत् । पुनः कथंभूतं ? प्रथितो विख्यातोऽवदानो महिमा यस्य तत् ।।४०।। __ अन्वयार्थ ( भुवनपावन) हे संसारको पवित्र करने वाले भगवन् ! (निःसंख्यसारशरणम्) असंख्यात् श्रेष्ठ पदार्थों के घरकी (शरणम्) रक्षा करनेवाले ( शरण्यम्) शरणागत प्रतिपालक और {सादितरिपुप्रथितावदातम्) कर्मशत्रुओंके नाशसे प्रसिद्ध है, पराक्रम जिनका ऐसे (त्वत्पादपङ्कजम्) आपके चरणकमलोंको ( आसाद्य अपि) पा कर भी ( प्रणिधानवन्ध्यः) उनके ध्यानसे रहित हुआ मैं (वन्ध्यः अस्मि ) अभागा-फलहीन हूँ, और ( तत् ) उससे ( हा) खेद है कि मैं ( हतः अस्मि ) नष्ट हुआ जा रहा हूँ। अर्थात म मुझे दुःरवी कर रहे हैं।
भावार्थ हे भगवन् ! आपके पवित्र और दयालु चरणोंको पाकर भी जो मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हूँ, उससे मेरा जन्म निष्फल जा रहा है। और मैं कर्मों द्वारा दुःखी किया जा रहा हूँ ।।४०॥ देवेन्द्रवन्ध? विदिताखिलवस्तुसार !
संसारतारक ! विभो भुवनाधिनाथ ! त्रायस्व देव ! करुणाहृद ! मां पुनीहि
सीदन्तमद्य. भयर्दव्यसनाम्बुराशेः ।।४१।। सर्वज्ञ देव ! सुरनायक ! पूजनीय !
संसार-तारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ ! मैं हूँ दयाधन ! दुखी मुझको बचाओ,
संसार से, कर पवित्र तथा मुझे दो।। ४१ ।। टीका-देवेन्द्राणां वंद्यः पूज्यस्तस्यामंत्रणे हे देवेन्द्रवंध ! विदितो