________________
१०२ : पंचस्तोत्र
टीका--भो शरण्य शरणाय अहं ! भो नाथ ! भो दुःखिजनानां वत्सल बांधव । भो कारुण्यपुण्यवसते ! हे वशिनो वरेण्य ! हे यतीनां श्रेष्ठ ! हे महेश ! मयि विषये । दयां कृपां । विधाय । दुःखाननं अंकुरास्तेषां उद्दलनं निराकरणं तत्र तत्परस्तस्य भावस्तां विधेहि कुरु।। कथंभूते मयि ? भक्त्या नते नम्रीभूते । भो नाथ ! हे पार्श्वनाथ ! हे जन । बांधव ! मम दुःखानि निवारय मोक्षं देहीति तात्पर्यार्थः ।।३१।।
अन्वयार्थ—(नाथ) हे नाथ । (दुःखिजनवत्सल) हे दुखियोंपर प्रेम करने वाले ! (हे शरण्य) हे शरणागत प्रतिपालक ! (कारुण्यपुण्यवसते) हे दया की पवित्र भूमि ! ( वशिनाम् वरेण्य !) हे जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ ! और (महेश) हे । महेश्वर ! (भक्त्या ) भक्ति में (नते मयि) नम्रीभूत मुझ पर (दयाम् विधाय) दया करके (दुःखांकुरोहलनतत्परताम् ) मेरे दुःखाङ्कर के नाश करने में तत्परता-तल्लीनता (विधेहि } कीजिये . .
भावार्थ-आप शरणागत प्रतिपालक हैं, दयालु हैं और समर्थ भी हैं। इसलिए आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे दुःखों को दूर करने के लिए तत्पर हूजिये ।।३९।। निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्या
मासाध सादितरिपुप्रथितावदानम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो
वन्ध्योऽस्मि तद्भुवनपावन हा हतोऽस्मि ।।४।। माहात्म्यवान, शरणागत-शान्तिदायी,
शत्रु-प्रणाशकर हैं तव पादपद्म । पाके उन्हें सफल जो न हुआ प्रभो ! तो,
हे लोकपावन ! मुनीश्वर । हा मरा मैं ।। ४० ।। टीका---हे भुवनपावन हे त्रैलोक्यपावन ! चेत् यदि । त्वत्पादपंकजमपि तव चरणकमलमपि । आसाद्य प्राप्य । प्रणिधानेन वध्यः ।