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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र : १०१ अन्वयार्थ अथवा ( जनबान्धव ) हे जगबन्धो ! (मया ) मेरे द्वारा आप भी ( आकर्णित: अपि) आकर्णित भी हुए हैं, ( महितः अपि ) पूजित भी हुए हैं, और (निरीक्षितः अपि ) अवलोकित भी हुए हैं, अर्थात् मैंने आपका नाम भी सुना है, पूजा भी की है और दर्शन भी किये हैं, फिर भी ( नूनम् ) निश्चय है कि (भक्त्या ) भक्तिपूर्वक (चेतसि ) चित्त में (न विधृतः असि) धारण नहीं किये गये हो । ( तेन ) उसी से ( दुःखपात्रम् जात: अस्मि) दुःखों का पात्र हो रहा हूँ (यस्मात्) क्योंकि ( भावशून्याः) भाव रहित (क्रियाः } क्रियाएँ (न प्रतिफलन्ति ) सफल नहीं होती। भावार्थ-इससे पहले तीन श्लोकों में कहा गया था कि भगवन् ! मैंने 'आपका नाम नहीं सना', 'चरणों की पूजा नहीं की' और 'दर्शन नहीं किये' इसलिये मैं दुःख उठा रहा हूँ । अब इस श्लोक में पक्षान्तररूप से कहते हैं कि मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर भी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते, उसका कारण सिर्फ यही मालूम होता है, कि मैंने भक्तिपूर्वक आपका ध्यान नहीं किया । केवल आडम्बर त्य से ही उन कामों को किया है न कि भावपूर्वक भी । यदि भाव से करता तो कभी दुःख नहीं उठाने पड़ते ।।३८।।। त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल ! हे शरण्य ! कारुण्यपुण्यवसते ! वशिनां वरेण्य ! । भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय दुःखांकुरोददलनतत्परतां विधेहि ।।३९।। हे दीनबन्धु ! करुणाकर ! हे शरण्य ! स्वामिन् ! जितेन्द्रिय ! वरेण्य ! सुयुण्यधाम ! हूँ भक्ति से प्रणत मैं करके दया तू, हे नाथ ! नाश कर दे सब दुःख मेरे ।। ३९ ।।
SR No.090323
Book TitlePanchstotra Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Syadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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