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१०० : पंचस्तोत्र
अन्वयार्थ--(विभो) हे स्वामिन् ! ( मोहतिमिरावृतलोचनेन) मोहरूपी अन्धकार से ढंके हुए हैं नेत्र जिनके ऐसे ( मया) मेरे द्वारा आप ( पूर्वम्) पहले कभी (सकृद् अपि) एक बार भी (नूनम्) निश्चय से (प्रविलोकितः न असि) अच्छी तरह अवलोकित नहीं हुए हो--अर्थात् मैंने आपके दर्शन नहीं किये । (अन्यथा हि ) नहीं जो (प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः ) जिनमें कर्मबन्ध की गति बढ़ रही है ऐसे (ऐते) ये (मर्माविधः) मर्मभेदी ( अनर्थाः) अनर्थ (माम् ) मुझे (कथम् ) क्यों ( विधुरयन्ति ) दुःखी करते ?
भावार्थ-भगवन् ! मैंने मिथ्यात्व के उदय से अन्धे होकर कभी भी आपके दर्शन नहीं किये। यदि दर्शन किये होते तो आज ये दुःख मुझे दुःखी कैसे करते ? क्योंकि आपके दर्शन करने वालों को कभी कोई भी अनर्थ दुःख नहीं पहुंचा सकते ।।३७।। आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि
नूनं न चेतसि मया विधतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ।।३८।। मैंने सुदर्शन किये, गुन भी सुने, की
पूजा, तथापि हिय में न तुझे बिठाया । हूँ दुःख-पात्र जनबांधव ! मैं इसी से,
होती नहीं सफल भाव बिना क्रियाएँ ।। ३८ 11 टीका–भो विभो ! मया अज्ञानिना । त्वं आकर्णितोऽपि समवसरणलक्ष्मीविराजमान एवं श्रुतोपि । एवंविधस्त्वं महितोऽपि पूजितोऽपि । एवंविधस्त्वं । निरीक्षितोऽपि । नूनं निश्चितं । चेतसि मनसि । भक्त्या सम्यक्त्वपूर्वकं । न विधतोऽसि । हे जनानां बांधव ! तेनैव हेतुना अहं । दुःखानां पात्रं जातोऽस्मि सर्वदुःखस्थानं अभूवं । यस्मात्कारणदूभावशून्याः सम्यक्त्वरहिताः क्रियाः न प्रतिफलंति । भावेन शून्या भावशून्याः ।।३८।।