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________________ 96] महाकद सिंह विराउ पन्जुषणचरित कवि ने एक स्थान पर चाण्डाल दूसरे पर मातंग एवं डोम' कहा है। 'समराइच्चकहा' में भी इन तीनों को पर्यायवाची माना गया है। उसके अनुसार इस वर्ग के लोगों के कार्य निम्नतर श्रेणी के होते थे। फाहियान (5वीं सदी) एवं इत्सिंग' (7वीं सदी) के अनुसार ये उपेक्षित एवं अस्पृश्य-वर्ग में आते थे। उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोधा-टीका (दसवीं सदी) के अनुसार चम्पानरेश-दधिवाहन के पुत्र करकण्डु का पालन-पोषण एक चाण्डाल ने ही किया था, बाद में मातंगपुत्र के रूप में प्रसिद्ध वह करकण्डु दन्तिपुर के राजा के रूप में निर्वाचित हुआ, तो सामन्त वर्ग के विरोध करने पर भी बड़ी कठिनाई पूर्वक उसे राजा स्वीकृत किया गया। इससे विदित होता है कि दसवीं शताब्दी में भी मातंगों की समाज में अच्छी स्थिति नहीं थी। महाकवि सिंह ने भी उक्त जातियों को समाज के उपेक्षित वर्ग में ही रखा है। यद्यपि डोम एवं चाण्डाल गीत एवं नृत्य में कुशाल होते थे। इसलिए महाकवि कल्हण ने उन्हें संगीत एवं नृत्यकला में कुशल कहा है। विदेश से वापिस लौटते समय राजा श्रीपाल को राजा धरपाल की दृष्टि में गिराने हेतु धवल सेठ ने मातंगों को ही फुसलाकर श्रीपाल को अपना सम्बन्धी घोषित करने का अभिनय कराया था। (आ) नापित प्राचीन काल में नापित का मुख्य कार्य मालिश एवं स्नान कराना था। उसकी व्युत्पत्ति 'स्नपित' से मानी गयी है, किन्तु परवर्ती-कालों में उसे केश-कर्त्तक के रूप में ही लिया जाने लगा। कवि सिंह ने नापित को केश-कर्तक के रूप में ही स्मृत किया है। (इ) माली आदिपुराण के अनुसार माली अथवा भालाकार का प्रधान कार्य पुष्प-चयन पुष्पग्रथन एवं राजपरिवार के लिये पुष्पार्पण तथा वाटिकाओं की रखवाली करना था 1/2 कवि सिंह ने भी इसी अर्थ में उक्त जाति का उल्लेख किया है। उक्त जातियों के अतिरिक्त कवि ने कुछ वन्य-जातियों—वनेचर, पुलिंदा, शबर" एवं भील' के भी उल्लेख किये है। (ई) वनेचर "वने चरति इति वनेचरः" अर्थात् वन में रहकर जीवन व्यतीत करने वाली जातियाँ बनेचर कहलाती थीं। महाकवि सोमदेव ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। किरातार्जुनीयम् में 'वनेचर' ही महाराज युधिष्ठिर को दुर्योधन के कार्य-कलापों की सूचना देता है। इससे विदित होता है कि वनेचरों को गुप्त सन्देशवाहक बनने की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी। महाकवि सिंह ने भील, शबर एवं पुलिंद को वनेचर का पर्यायवाची माना है और उन्हें धनुर्धारी एवं व्यापारियों से वन्य-मार्ग का कर-वसूल करनेवाला कहा है।। पच० में इनके अतिरिक्त पर्वतों पर निवास करने वाली विद्याधर", यक्ष, नाग, किन्नर आदि जातियों 1. माया 5/16/151 2. वही०. 11/4/21 3. वही0, 14/23/101 4. समः क.4, पृ० 348। 5. पहील. पृ. 3491 6. ट्रेवेल्ला ऑफ फाहियान, पृट 431 7. इत्सिंग-तकाकुसू, पृ०1391 8. कहाणप तिग – करकडरियं एवं कार चरिउ। 9. रावतरंगिणी 5/354, 6/1821 11. रइ साहित्य क. आलोचनात्मक परिशीलन, ५02571 ।। प०च० 12:41:51 12. aka पु. प्रथम खंड. पृ० 2621 13. प40 11131। 14. यही0. 10:1337-8 . 15. वासीय tovII 16. वही०, 10:8:137 17. तहील. | 18. यस्तिलक० ० 601 19. किरातार्जुनीयम्, ।।। 20, 4010 10111101 21. वह:0, सूस्कुगाहक 10:1041 22. वह 272101 23. वही0. 7:171131 24. वही0. 2:11151 25. वही0. 22:1121
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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