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________________ प्रस्तावना [95 द्वारा देश के पालन-पोषण एवं समाद-बलि में महत्वपूर्ण योगदान देते थे। इसलिए बाहरण एवं क्षत्रियों के साथ-साथ समाज में इनका भी सम्मानित स्थान था। चक्र में इन्हें वगिक गणियारे' के नाम से सम्बोधित किया गया है। राजकुमार प्रद्युम्न के द्वारावती प्रवेश के समय कवि ने बाजार-हाट. एवं वहां बिकने वाली विविध वस्तुओं के नामों के सान वणिों के उल्लेख किये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय व्यापार-वणिकों के हाथों में ही या। एक अन्य प्रसंग से विदित होता है कि वणिरजन एक स्थान से दूसरे स्थानों में जाकर आयात-निर्यात कर व्यापार किया करते थे, जिसके लिए रास्ते में उनसे चुंगी (टैक्स) भी वसूल की जाती थी। इससे तत्कालीन चुंगी-प्रथा पर भी प्रकाश पड़ता है। ____ महाकवि सिंह ने 'वणिक' शब्द के साथ ही 'श्रेष्ठि शब्द का प्रयोग भी किया है एवं उन्हें धन तथा स्वर्ण से समृद्ध बतलाया गया है। इससे ज्ञात होता है कि श्रेष्ठि और वणिक में समृद्धि तथा व्यापार की दृष्टि से अन्तर था। 'श्रेष्ठि' समाज में सबसे अधिक समृद्ध समझे जाते थे। णायाधम्मकहाओ एवं समराइच्चकहा में ऐसे अनेक श्रेष्ठियों के वर्णन आये है जो समाज एवं राष्ट्र में सर्वश्रेष्ठ समृद्ध व्यक्ति होते थे तथा जो एक ही स्थान पर रहकर व्यापार भी करते थे। उन्हें राज-दरबार में सम्मानित स्थान प्राप्त होता था | भविसयतचरियं के नायक भविष्यदत्त के पिता बणिक् धनदत्त को गजपुर-नरेश भूपाल ने श्रेण्ठि की उपाधि प्रदान की थी। इससे विदित होता है कि 'श्रेष्ठि' एक राष्ट्रीय उपाधि थी, जो उच्च-श्रेणी के समृद्ध-वपिकों को राजा द्वारा प्रदत्त की जाती थी। कुमारगुप्त (प्रथम) के दामोदरपुर ताम्र-पत्र में भी इसका उल्लेख है।" वैदिक युग में शूद्र को निम्न कोटि का वर्ग माना जाता रहा है एव उन्हें वेदादि धार्मिक ग्रन्थों को सुनने योग्य भी नहीं माना गया है। यद्यपि प010 में स्पष्टरूपेण 'शूद्र' शब्द का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु उसके अन्तर्गत आने वाली कुछ जातियों के उल्लेख उनके कार्यों के आधार पर किये गये हैं। इस प्रकार की जातियों में चाण्डाला नापित।। माली वामीकर (स्वर्णकार) एवं डोमा4 आग्द के नामोल्लेख प्राप्त हैं। भले ही वैदिक धर्म में शूद्रों को वेदादि धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन के अयोग्य माना गया हो. किन्तु जैन धर्म में भानव मानकर उन्हें धार्मिक-ग्रन्थों के अध्ययन के अयोग्य नहीं माना। वे जैन धर्म के व्रत-नियमों का पालन कर परलोक में अपनी गति का सुधार करने के लिए स्वतन्त्र थे। प्राचीन जैन-साहित्य में इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। प010 में भी चाण्डाल एवं एक ऐसी धीवरी कन्या का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, जिसने शूद्र-कुल में जन्म लेकर भी परिस्थितियों वश श्रद्धा-भक्तिपूर्वक जैनाचार का पालन किया और सद्गति को प्राप्त किया। तात्पर्य यह कि शूद्र-कुल में जन्म लेने वालों के लिए भी जैनाचार पालन करने की छूट थी। उन पर कभी किसी भी प्रकार का बन्धन या निषेधाज्ञा लागू न थी। (अ) चाण्डाल वैदिक प०च० में चाण्डाल. डोम एवं मातंग शूद्र-वर्ग में पर्यायवाची माने गये हैं। परवर्तित-वश में प्रद्युम्न को 1. 4) 10. 10106 .पही III: । वहीः |:12:21 . नई 2016। 5 . Ti2144 || TIRTI5:19। 7. स्गरचना 3. पृ. IN4: Syn 34HIVतरामा नांग्य | ||| ५. डि। 15, 1151 10. 4 0.556.151 दा. वही, 12:12i5 - 12 नक्षीक, 11113131 ।वहीं63141 14410. 14:24/10 15. 127.9:11810.111
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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