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महाका सिंह बिरहुड पज्जुण्णचरित
कवि सिंह ने बतलाया है कि जम्बू नामक वृक्षों की अधिकता के कारण ही उस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा।। इस जम्बूद्वीप के पर्त गतं पश्चिम-दिप्रा में लम्बाशमान दोनों ओर पुर्व एवं पश्चिम समुद्र का स्पर्श करते हुए हिमवन, महाहिमवन, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी नामक छह कुलाचल हैं। इन कुलाचलों के निमित्त से उसके सात क्षेत्र बन जाते हैं, जिनके नाम क्रमश: भरत, हरि, विदेह, रम्यक् हैरण्यवत् और ऐरावत हैं।
क्षेत्र
भरतक्षेत्र (1/6/8, 2/11,7, 4/2/1)
पज्जुण्णचरिउ में भरतक्षेत्र के भूगोल के विषय में कोई चर्चा नहीं की गयी, किन्तु प्राचीन-साहित्य में उसके विषय में विविध चर्चाएँ आयी हैं। जिनसेन कृत आदि पुराण के अनुसार हिमवन्त के दक्षिण और पूर्वी-पश्चिमी समुद्रों के बीच वाला भाग भरतक्षेत्र कहलाता है। इसमें कोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुम, समुद्रक, काश्मीर, उसीनर, आनर्त, पांचाल, वत्स, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध, कर्नाटक, चोल, केरल, दास, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पत्त्तव, काम्बोज, आरट्ट, बाल्हीक, तुरुष्क, शक और केंकय देशों की रचना मानी गयी है। ___ आचार्य उमास्वामि के अनुसार इस भरतक्षेत्र का विस्तार 526 6/19 योजन है। पर्वत
सामाजिक-जीवन के विकास में पर्वतों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। जलवायु-संयमन, ऋतु परिवर्तन एवं विविध खनिज-तत्वों तथा जड़ी-बूटियों के उत्पादन से वे देश की आर्थिक समृद्धि को भी सन्तुलित रखते हैं। 'पज्जुण्णचरिउ' में दो प्रकार के पर्वतों के उल्लेख मिलते हैं- (1) पौराणिक, एवं (2) वास्तविक अथवा समकालीन ।
सुमेरु पर्वत (अपरनाम मंदिरगिरि, 1/6/7, 4/9/10)
पौराणिक-पर्वतों में सुमेरु पर्वत एवं वेयड्ढ पर्वत (वैताढ्य) प्रमुख हैं। वैदिक एवं जैन-साहित्य में इनका विस्तृत वर्णन आया है। जैन-पुराणों के अनुसार सुमेरु-पर्वत जम्बूद्वीप के मध्य भाग में स्थित है। जिसकी उँचाई एक लाख चालीस योजन है। इसमें से एक हजार योजन भाग पृथिवी के भीतर है, चालीस योजन के अन्त में एक-एक चोटी और शेष 99 हजार योजन का समतल से चूलिका तक प्रमाण माना गया है। आदि भाग में पृथिवी पर सुमेरु पर्वत का व्यास दस हजार योजन है, तथा ऊपर की ओर वह क्रमश: घटता गया है, किन्तु जिस हिसाब से वह ऊपर की ओर घटा है उसी क्रम में पृथिबी में उसका व्यास बढ़ता जाता है। मार्कण्डेय पुराण से विदित होता है कि इस पर्वत के पश्चिम में निषाध, उत्तर में श्रृंगवन एवं दक्षिण में कैलाश स्थित है। यह बद्रिकाश्रम के करीब है एवं सम्भवत: एरियन का मेरास-पर्वत है।'
वैताढ्य जैन साहित्य में वेयड्ढ (2/3/6, 2:119,7/8/8) अथवा वैताढ्य (अथवा विजयार्द्ध) का विस्तृत वर्णन मिलता
1. दे० प०० जंबूतरु, 16/6I 2. तत्वार्धसूत्र, 311013. आपु० 16:152-1561 4 देव २०सि० 3:24, पृ० 22|| 5. वहीं0 3.9, पृ0 2131 6. दे० मा०प० बंगवासी संभ, पृ0 2401 7.बी०सी० लाहा : हिस्टोरिकल ज्योग्राफी ऑफ रेंसिमेंट इंडिया, पृ0 1311