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महारुद सिंह विर पण्णचरिउ
माध्यम से किया है। वह एक अत्यन्त सुन्दरी नवयुवती है। उसके अंग-अंग से नवयौवन एवं सौन्दर्य प्रस्फुटित होता रहता है। वह दर्पण के सम्मुख बैठकर स्वयं ही अपने सौन्दर्य पर आकर्षित है ( 1 / 16 ) । वह उसमें इतनी डूब जाती है कि उसके बगल में कौन खड़ा है और क्या धारणा बना रहा है, इसका भी उसे भान नहीं । छुई-मुई जैसे स्वभाव वाले महान् साधक नारद रूप गर्विता इस नारी के अपने प्रति उपेक्षित भाव को देखकर रुष्ट ही नहीं हुए अपितु उसे इसका फल चखाने की प्रतिज्ञा कर तथा इसकी शिक्षा देने हेतु उसके लिये एक सौत की खोज में निकल पड़ते हैं (2/1-2) | सत्यभामा के मन में सपत्नी के प्रति ईर्ष्या सदैव पनपती रहती है, जिसके फलस्वरूप वह उनको नीचा दिखाने का प्रयास करती रहती है। रूपिणी को वह हमेशा परास्त करने के उपक्रम में संलग्न रहती है। इसी दूषित भावना के कारण वह रूपिणी के साथ प्रतिज्ञा करती है कि जिसके पुत्र का विवाह पहले होगा, वह दूसरी के केशों का कर्त्तन कराएगी और उसका पुत्र उन्हीं केश-कलापों को रौंद कर विवाह के लिये प्रस्थान करेगा (3/9/15) | किन्तु प्रद्युम्न के कारण उसकी इस अभिलाषा पर तुषारापात हो जाता है । वह अपने समक्ष कृष्ण को भी कुछ नहीं समझती और उन्हें धृष्ट, पिशुन, खल एवं ग्वाला (3/6/6-7) जैसे शब्दों से सम्बोधित करती है । किन्तु सत्यभामा की यह विवेकहीनता निरन्तर नहीं बनी रहतीं। प्रद्युम्न, भानु आदि की विरक्ति के तुरन्त बाद उसके चरित्र में सहसा परिवर्तन हो जाता है। वह अपने पिछले दुष्कृत्यों एवं दूषित भावनाओं को समझने लगती है और प्रायश्चित स्वरूप दीक्षित होकर घोर तपश्चरण करती है।
कनकमाला
पज्जुण्णचरिउ में कनकमाला का चरित्र प्रद्युम्न की धर्म-माता के रूप में चित्रित हुआ है । पूर्वार्द्ध में वह प्रद्युम्न को प्राप्त करने के पश्चात् अपने हृदय के समस्त स्नेह और ममता के साथ उसका लालन-पालन करती है, किन्तु उत्तरार्द्ध में जाकर वह पूर्व जन्म के प्रभाव आकर प्रद्युम्न के सौन्दर्य पर भुग्ध हो कर उसे आकर्षित करने के लिये अनेक अश्लील चेष्टाएँ करने लगती हैं । किन्तु जब प्रद्युम्न वहाँ से भाग जाता है, तब वह अपने पति — राजा कालसंबर से उसकी झूठी शिकायतें करके उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करती है, और अन्त में प्रद्युम्न की ही विजय होती है।
इस प्रकार कवि ने कनकमाला के चरित्र में दो प्रकार के भावों का चित्रण किया है। एक ओर वह ममतामयी नारी है, तो दूसरी और कुटिल व्यभिचारिणी ।
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(10) सूक्तियाँ, कहावतें एवं मुहावरे
सूक्तियाँ, कहावतें एवं मुहावरे ऐसे ऐतिहासिक संक्षिप्त सुवाक्य होते हैं जिनके पीछे विवेकशील मानव के विचारों की युगों-युगों से सुचिन्तित दीर्घ- परम्पराएँ एवं अनुभूतियाँ अथवा इतिहास में घटित घटनाओं के संक्षिप्त संकेत रहते हैं। इनमें इतिहास, संस्कृति, समाज, धर्म, दर्शन एवं लोक-जीवन से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण तथ्य भी प्रच्छन्न रहते हैं। जो संकेतवाक्य के रूप में प्रयुक्त होते हैं और जिसके प्रयोग से अल्पकाल में भी कवि अथवा वक्ता अपनी विस्तृत भावनाओं को सहज ही में व्यक्त कर सकता है। काव्यों में ये सूक्तियाँ घटना-प्रसंगों में उसी प्रकार सुशोभित होती हैं, जिस प्रकार किसी उद्दाम यौवना सुन्दरी नवयुवती के भव्य ललाट पर सिन्दूरी बिन्दु | पज्जुण्णचरिउ में अपने विचारों के समर्थन, गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन एवं वर्णन - सौन्दर्य में अभिवृद्धि की दृष्टि से कवि सिंह ने प्रसंगानुकूल निम्न सूक्तियों के प्रयोग किये हैं—