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महाक सिंह विरहउ पज्जुष्णचरिउ
करते हैं। रूपिणी-अपहरण के समय वे ही कृष्ण के सच्चे सहयोगी सिद्ध होते हैं। प्रद्युम्न अपहरण के समय कृष्ण जब शोकसागर में डूबे रहते हैं, तब बलराम ही उनका कन्धा झकझोर कर उन्हें समझाते- बुझाते एवं धैर्य 'बन्धाते हैं। कृष्ण-प्रद्युम्न युद्ध में बलराम ही कृष्ण की पूरी सहायता करते हैं ।
बलभद्र को सिंह के साथ युद्ध करने में बड़ा आनन्द आता था । प्राय: ही उसका आयोजन किया करते थे। प्रद्युम्न को जब इस तथ्य की जानकारी मिलती है, तब वह विद्याबल से स्वयं सिंह का रूप धारण कर उन्हें युद्ध करने को ललकारता है। दोनों में भीषण संघर्ष होता है और अन्त में बलराम को बुरी तरह पराजित होना पड़ता है।
कवि सिंह ने बलभद्र के अनेक पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया है । यथा – सीरायुध (13/4/9), सीरि (13/5/12), हलधर (13/14/14 ), बलहद्द ( 13/15/15) एवं राम (15/1/8) |
नारद (अपर नाम बेताल, 1/16/10)
प्रस्तुत प्रबन्ध-काव्य में नारद एक मनोरंजक पात्र है। पौराणिक कथाओं के विकास में जहाँ कथावरोध होने लगता है अथवा कथानक को जहाँ नया मोड़ देना होता है, वहीं इस पात्र का आविर्भाव होता है। कथा में रोचकता, सरसता एवं जिज्ञासा उत्पन्न करने वाले पात्रों में नारद का विशेष स्थान है। उसके हृदय में क्रोध और स्नेह दो विपरीत भावों का उदय एक साथ ही होता रहता है, जो सामान्य पात्रों के लिए सम्भव नहीं । सत्यभामा जहाँ उसे शत्रु समझती है, वहीं रूपिणी उसे अपना भाई मान कर उसके साथ भ्रातृत्व का स्नेह भाव रखती है। प्रथम सन्धि के अन्तिम कड़वक में नारद का आविर्भाव हो जाता है । और 13वीं सन्धि के अन्त तक वह किसी न किसी रूप में कथा को प्रवाह देते रहते हैं। अनेक घटनाओं में नारद ने सक्रियता दिखलाई है। रूपिणी का कृष्ण द्वारा अपहरण, प्रद्युम्न के अपहरण के पश्चात् उसकी खोज, कालसंबर एवं प्रद्युम्न के युद्ध में समझौता, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न-युद्ध के बीच कृष्ण को प्रद्युम्न का परिचय कराने वाले पात्र नारद ही हैं।
नारद अभिशाप के प्रतीक माने गये हैं, किन्तु प्रसन्न होने पर उनके वरदान भी भाग्य निर्णायक सिद्ध होते हैं। प्रद्युम्न के भाग्य - निर्माण में नारद का प्रमुख हाथ रहा। फिर भी प्रद्युम्न कभी-कभी परिस्थिति- विशेष में अपनी हठधर्मी से नारद को आपत्ति में डाल देता है। नभोयान को आकाश में ही रोक कर तथा उसमें नारद को दीर्घावधि तक बन्द कर प्रद्युम्न द्वारिका में कौतुक करने चला जाता है । इस पर नारद को प्रद्युम्न पर कोधित होने का अच्छा अवसर मिला था, फिर भी वे प्रद्युम्न के प्रति क्षमाशील रहते हैं तथा उसे पुत्रवत् स्नेह देते रहते हैं ।
कालसंवर
पज्जुण्णचरिउ में कालसंबरविद्याधर राजा के रूप में वर्णित हुआ है। इसका चरित्र उदात्त है। वह वीर एवं पराक्रमी होने के साथ-साथ दयालु भी है । खदिराटवी में नवजात शिशु के रूप लावण्य को देखकर वह द्रवित हो जाता है और उसके ऊपर पड़ी हुई विशाल शिला को हटा कर तथा उस शिशु को उठाकर अपने गले से लगा लेता है और उसे अपनी पत्नी कंचनमाला को सौंप देता है। कंचनमाला के अनुरोध पर ही वह (कालसंवर) शिशु के कुल, गोत्र, जाने बिना ही, तथा अपने 500 पुत्रों के होते हुए भी उसे ही युवराज पद प्रदान कर देता
। वह अपना कर्त्तव्य समझ कर उसका उचित लालन-पालन कर उसे सभी शिक्षाओं में निष्णात भी बना देता