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________________ 64] महाका सिंह विरइउ पग्नुण्ण परिउ 15. ऋतु वर्णन -15/3/5-7, 15/4/3-9, 15/5/1-3 16, धार्मिक-उपदेशों के प्रसंग, 6, 14, 15 सन्धियाँ 17. अवसर-विशेष पर देवागमन एवं पंचाश्चर्य _sin 18. राज्यसभा में देवों का आगमन -14/lin 19. समवशरण में तीर्थंकर-दर्शन कर राजा को वैराग्य --15/12 20. साधक-मुनि पर उपसर्ग -5/5/7-8 21. मेघ-घटा को देख कर वैराग्य -6/8/10 (9) चरित्र-चित्रण पज्जुण्णचरिउ में अनेक पात्रों का चित्रण हुआ है, किन्तु चरित्र-चित्रण की दृष्टि से उनमें से कुछ ही पात्र प्रमुख हैं। यथा-पुरुष पात्रों में से प्रद्युम्न, नारद, कृष्ण, बलभद्र एवं कालसंवर तथा नारी-पात्रों में से रूपिणी, सत्यभामा एवं कनकप्रभा। बाकी के पात्र उस राहगीर के समान हैं, जो मार्ग में कुछ दूरी तक अन्य प्रमुख राहगीरों का किसी कारण-विशेष से कुछ साथ दे कर विरमित हो जाता है। ऐसे मात्र कथा-प्रवाह की दृष्टि से भले ही अपना महत्व रखते हैं, किन्तु उनका चरित्र सामान्य ही है। इस श्रेणी के पात्रों में वसुदेव, राजा भीष्म, रूपकुमार, भानु, सुभानु, शम्बु, जाम्बवती आदि के नाम लिए जा सकते हैं। प्रमुख पात्रों के चरित्र निम्न प्रकार हैंप्रद्युम्न प्रद्युम्न पज्जुण्णचरिउ का धीरोदात्त नायक है। श्रमण-परम्परा के अनुसार चौबीस कामदेवों में उसे 21वां कामदेव माना गया है। उसमें परम्परानुमोदित नायक के सभी गुण विद्यमान है। वह अत्यन्त सुन्दर और साहसी गुणों से विभूषित है। अपनी वीरता के कारण वह अनेक विद्याओं और बहुमूल्य सामग्रियों को प्राप्त करता है। उसके जीवन में लगातार प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती रहती हैं, किन्तु वह उनसे रंचमात्र भी विचलित नहीं होता, प्रत्युत बड़े ही साहस के साथ वह उनका सामना कर उनमें सफलता प्राप्त करता है। विजयार्द्ध-पर्वत के गोपुर में वह एक सर्प से भिड़ जाता है और उसकी पूँछ पकड़ कर उसे पृथिवी पर पटक देता है। कालगुफा एवं नाग-गुफा के राक्षस एवं नागदेव को भी पराजित कर देता है। कपित्थवन में वह करि रूप धारी भयंकर सुर से युद्ध कर उसे भी निर्मद कर डालता है। युद्ध के प्रसंगों में उसकी क्षमाशीलता एवं वीरता का दिग्दर्शन कवि ने बड़ी सुन्दर भाषा-पौली द्वारा किया है। प्रद्युम्न के हृदय में अपने माता-पिता के प्रति अपरिमित श्रद्धा-भक्ति है। वह (अपने माता-पिता से) कहता है कि- "जिसके लिए तुम जैसी माता और राजा कालसंबर जैसे पिता मिले हों, उनके आगे मुझ जैसे पुत्र के लिए इस राज्य में उससे अधिक अच्छा सुफल और क्या मिल सकता है? उसका हृदय गंगा की निर्मल धारा के समान अत्यन्त पवित्र है। उसके मन एवं मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का छल-छद्म तथा स्वार्थान्धता नहीं। वह अत्यन्त सौन्दर्यशाली है। उसके अप्रतिम-सौन्दर्य पर मोहित हो कर युवतियाँ किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं। प्रद्युम्न अत्यन्त संयमी है, जब उसकी धर्म-माता—कंचनमाला उसे व्यभिचार के लिए प्रेरित करती है, तब वह उसके इस प्रस्ताव को निर्ममतापूर्वक टुकरा देता है। इतने पर भी धर्म-माता का कहीं अपमान न हो जाये, इस भय से वह स्वयं ही इसका उल्लेख कहीं भी, किसी भी रूप में नहीं करता। उस तथ्य को वह पूर्णतया छिपा
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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