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महामह सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित
गर्जन के प्रसंग में
गज्जइ गड़यड-रउरव णदई तडयडत तडिवि सरिस सद्दई।
पंचवण्णु उत्तंगु सुसोहणु वलय वि सक्कचाउ मणमोहणु ।। -13/11/4-5 जब कवि जन-सामान्य की दृष्टि से कोई विशेष समस्या को प्रस्तुत करना चाहता है. उस समय वह तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए प्रश्नोत्तरी-ौली का प्रयोग करता है। इसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उस पर प्रियदर्शी सम्राट अशोक के स्तम्भ लेखों (संख्या 3, 4) में प्रयुक्त प्रश्नोत्तरी-शैली का प्रभाव पड़ा है। उदाहरणार्थ
परमेसरु कवणु यह कहिं तणउ महु करिज्जु अछइ। -4/12/1 कहइ जिणेसरु रायसुणि जो तिहुवणे सुपसिद्ध। . . 4/12/3 ता मयणेण पयासियं जं जणणी विण्णासियं । –9:4/2 तं णिसुगेवि सूरणर खयरवंदु सुगि मयप पयंपइ मुणि वरिंदु । –914/7 इथ वंदिवि जिणुवंदिउ गणहरु आसीणउं णियकोहि सिरिहरु ।
ता भासइ गणहरु गहिर-झुणि आयण्णहिँ गोवद्धणधारण। -15/11/10-16 युद्ध-वर्णन के प्रसंग में कवि ने वातावरण में आंतक एवं भारीपन उपस्थित करने के लिए चतुष्पदी एवं बोटनक से निर्मित कडवक-छन्द के साथ ध्वन्यात्मक-पदों के प्रयोग किये हैं।
रौद्र एवं वीभत्स वर्णनों के प्रसंग में कवि ने 'ट' वर्गीय ध्वनियों के साथ-साथ ध्वन्यात्मक एवं कर्कश शब्दावली का विशेष प्रयोग किया है। यथा
भगगरहेहिं मग्गु संचारिवि वड्ढिउ रुहिर महणउ फारुवि। किलिकिलंत वेयाल पच्चिय जोइणि गण वस कद्दम चच्चिय ।
पलया-लुद्धिवि सिव पुक्कारइ हुव रसोइ णं जमु हत्कारइ। ---13/5/7-9 (2) प्रबन्ध निर्मुक्त कड़वक-पद्धति
प्रस्तुत शैली की कुछ निम्न विशेषताएँ प्रमुख हैं:-- 1. मूल-प्रबन्ध के न रहने पर भी उदाहरण में ही प्रबन्धात्मकता की परिकल्पना । 2. प्रसाद और ओजगुण पूर्ण पदावली का नियोजन । 3. कथा के न रहने पर भी पद्धडिया-छन्दों द्वारा तथ्यों की अभिव्यंजना।
महाकवि सिंह की इस शैली की यद्यपि कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है, किन्तु कवि ने प्रस्तुत रचना के अन्त में एक ऐसे कडवक को प्रस्तुत किया है, जो मूल कथा-भाग से किसी भी प्रकार से सम्बन्धित नहीं है, किन्तु उसका गठन, प्रबन्धात्मक शैली का है। यह कडवक कवि-परिचय, आश्रयदाता-परिचय एवं गुरु-परिचय को प्रस्तुत करता है। यथा- कइ सीहु सहि गन्भंतरम्मि संभविउ कमलु जिह सुरसरम्मि ।
जण-वच्छलु सज्जण जणिय हरिसु सुइमंतु तिविह वइराय सरिसु।। उप्पण्णु सहोयरु तासु अवरु नामेण सुहंकर गुणहं पवरु ।
साहारणु लहुवउ तासु जाउ घम्माणु रत्तु अइ दिट्ठ काउ।। -15/29/9-12 आदि-आदि।