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________________ प्रस्तावना [61 प्रयोग विशेष रूप से दृष्टिगत होता है। उसके पज्जुण्णचरिउ को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, कि वह एक साथ प्रबन्ध-काव्य का प्रणेता, दार्शनिक, सैद्धान्तिक, आचारात्मक और आध्यात्मिक गीतियों का उद्गाता तथा भव-भव में भटकने वाले विषयासक्त मानव को विविध धर्मोपदेशों के माध्यम से उनका सम्बोधक भी है। पञ्च० में उपलब्ध काध्य-हौली को निम्न रूपों में विभक्त किया जा सकता है। 1. प्रबन्धात्मक-कड़वक-पद्धति । 2. प्रबन्ध-निर्मुक्त-कडवक-पद्धति, एवं 3. गाधा-पद्धति। (1) प्रबन्धात्मक-कडवक-पद्धति महाकवि सिंह ने पौराणिक-इतिवृत को ग्रहण कर महाकाव्य की शैली में कडवकों द्वारा सन्दर्भाशों का विभाजन कर प्रस्तुत काव्य का निर्माण किया है। इसमें कवि ने कडवकों का गठन कई प्रकार से किया है। उसने कहीं-कहीं द्विपदी और घत्ता के मेल से, तो कहीं पद्धड़िया और पत्ते के मेल से, कहीं माथा अथवा वस्तु-छन्द के मेल से, कहीं वंशस्थ और घत्ता के मेल से, कहीं भुजंगप्रयात और घत्ता के मेल से कडवकों का रूप निर्मित किया है। कवि का यह कड़वक-निर्माण विषयानुकूल ही सम्पन्न हुआ है। कवि जब हाव-भाव अथवा विविध विलास-क्रीड़ाओं का वर्णन करता है, तो वहाँ पद्धडिया और घत्ते से निर्मित कडवक का प्रयोग करता है (यथा3/6-9,6/20, 6/23)। महाकवि सिंह की कड़वक शैली की दूसरी विशेषता है कि उसने ओज, माधुर्य और प्रसाद गुण का प्रयोग विषयानुसार किया है। वह विषयानुसार ही कोमल, मधुर और ओजपूर्ण शब्दों का चयन करता चलता है। जिस समय प०८० के पात्रों को वैराग्य होने लगता है, उस समय की शब्दावली कवि ने इस ढंग से प्रस्तुत की है कि जिससे वैराग्य का बिम्ब उभर कर सामने आ जाता है। जब कवि किसी साधक मुनि के केश-लौंच का वर्णन करता है, तब उस प्रसंग में प्रयुक्त शब्दावली भी तुंचन करती जैसी प्रतीत होती है। ऐसे प्रसंगों में आई हुई शब्दावलियों को देखिए जंपइ वच्छ-वच्छ कुडिलालय, किह उम्मूलय सहसा आलय । सुवहि हंस तूलेमु सकोमले, कहणिसि वासरुगमि सिलयाउले।। -15/20/10-11 अण्हाणु अजिभणु णिहय करणु सिरलोउ दंतमल पंक धरणु। –915/8 उम्मूलिउ सकुडिलु केसपासु णं घाई चउक्महिं वल पणासु ।। भूसण स कोस महि पवर धुया छत्तोह-चमर-रह-भत्त-गया। परिहरिवि सणेहु सहोयरहं अवहेरि करेवि सेवायरहं ।। -1510011-13 कोपानल-प्रसंग में जो रण भउ-थउ कडणउ सहइ सो कि जीवहुँ जगेणउ लहइ। हरिमणे कोदाणलु पज्जलिउ दिक्करि करि अहिमुहु जि चवलिउ।। -13/9/9-12 1. विशेष के लिए दे० र साना परिः ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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