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________________ 56] महाकठि विरह पज्जुष्णचरिउ (7) भाषा दृश्य जगत के प्रति संवेदनशीलता, अदृश्य के प्रति मानसिक उद्वेग, संस्कार जन्य स्वाभाविक वृत्ति, सहज अनुभूति, भावानुगामिनी भाषा एवं शैली ही किसी प्रबन्ध-काव्य के प्रमुख आधार होते हैं। इसीलिए काव्य-प्रणेताओं ने भाषा को काव्य एवं विचारों का शारीर एवं अनुभति को आत्मा माना है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि भाषा-शैली ही कवि एवं उसके काव्य की कसौटी है। इस दृष्टि से १०च० की भाषा एवं शैली का अध्ययन अत्यावश्यक है। संक्षेप में उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है: प्रस्तुत मूलरचना में तीन प्रकार की भाषाओं के प्रयोग किए गए हैं— ( 1 ) अपभ्रंश (2) प्राकृत, एवं (3) संस्कृत । संस्कृतभाषा यद्यपि प०च० की प्रमुख भाषा नहीं है। वह केवल रचना प्रशंसा, कवि - प्रशंसा, आश्रयदाता - प्रशंसा अथवा प्रशस्ति-पद्यों के रूप में ही प्रयुक्त है, फिर भी वे प्रशस्ति-पद्य दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं:(1) शब्द प्रयोगों की दृष्टि से एवं (2) कवि के अपभ्रंशेतर भाषा - ज्ञान की दृष्टि से । - प्रयुक्त संस्कृत-पद्य, प्राकृत एवं अपभ्रंश से पूर्णतया प्रभावित हैं । कवि के भाषा - ज्ञान को देखते हुए यह ज्ञात होता है कि यदि वह चाहता तो इन पद्यों में संस्कृत भाषा के नियमित शब्द प्रयोग कर सकता था, किन्तु कवि चूँकि प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा का भी पण्डित था, अतः उसने इन पद्यों में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के मिले-जुले प्रयोग तथा अपभ्रंश-पद्यों के बीच-बीच में भी संस्कृत पद्यों की संरचना की । उसके कुर्व्वन् (कुर्वन् के लिए, दे० सन्धि - 1 अन्त में ). सर्व्व (सर्व के लिए - सन्धि 9 अन्त में ) मटंब (मडम्ब के लिए सन्धि 10 के अन्त में ) एवं संकुर्व्वतीदं (संकुर्वतीदं के लिए, सन्धि 10 के अन्त में), धर्म-कर्म्म ( धर्म-कर्म के लिए), पंडित (पण्डित के लिए) एवं गुर्जर ( गुर्जर के लिए, सन्धि 12 के अन्त में), तर्क (तर्क के लिए सन्धि 13 के अन्त में). गर्द (गर्व के लिए सन्धि 14 अन्त में), जैसे शब्द प्रयोग दृष्टव्य हैं, जिनमें प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार विजातीय-व्यंजन के लोप के कारण सम्बद्ध व्यंजन के द्वित्व का रूप तो दिखाई पड़ता है, किन्तु जिस (दुर्बल) व्यंजन के स्थान पर द्वित्व किया गया, वह स्वयं लुप्त न होकर यथावत् सुरक्षित रह गया है। उन्हीं मिले-जुले रूपों के प्रयोग कवि ने किए हैं। टवर्गीय 'ट' ध्वनि के स्थान में प्राय: 'ड' वर्ण हो जाता है, फिर भी यहाँ 'ट' ध्वनि यथावत् रूप में मिलती है। समस्त संस्कृत-पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में लिखे गए हैं। इनमें थद्यपि कहीं-कहीं मात्राओं का भंग दिखलाई पडता है, किन्तु वह दोष निश्चय ही प्रतिलिपिकार की अज्ञता अथवा प्रमादवश हुआ है। इन संस्कृत श्लोकों की कुल संख्या 8 है जो सन्धि संख्या 1, 9, 10, 11, 12, 13 एवं 14, 15 के अन्त में अंकित किए गए हैं। प्राकृत प०च० में उपलब्ध पद्यों में प्राकृत भाषा के प्रयोग भी द्रष्टव्य हैं। यद्यपि इन पद्यों की प्राकृत तथा अपभ्रंश के उकार - बहुल के भेद को छोड़कर अन्य भेद खोज पाना प्रामः कठिन ही है। कवि ने अपभ्रंश पद्यों के बीच कुछ तो अपने ज्ञान प्रदर्शन के लिए और कहीं-कहीं शैलियों एवं छन्दों के वैविध्य-प्रदर्शन हेतु ही प्राकृत उक्त-सुप्रसिद्ध पद्य—'गाहा' का प्रयोग किया है। पञ्च० में सन्धि तीन का प्रत्येक कड़वक गाहा- छन्द से प्रारम्भ भें
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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