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________________ प्रस्तावना 151 पसरिय कल्लोलहिँ, भुयहिं विसालाहें णियंषु विप्फालइ । खणे संकिवि फिट्टइ पुणुवि पपइ मूढउ अप्पउ खालइ।। -1/10/11-12 सिंह में वसन्त ऋतु का आरोप करके भी कवि ने रूपकालंकार की सुन्दर संयोजना की है। यथा फागुदिणंतभासुरवयणु जासवण कुसुम-लोहिर-रयणु। बेइस्तमल्लि-फुल्लिर-दसणु साहार लुलिय णव-दल रसणु । अयवत्त कुसुम सुइज्ज अपवरु रुणु-रुणिर भमर गुजारि सरु। कालकुद पतूण तिख-जहर वह मंजार चलुग्गिएणकरु ।। -3/4/3-5 इसी प्रकार एक अन्य प्रसंग में भी फागुन मास को दूत बना कर (6/16/12-13, 3/4/3-6) एवं पूजा के प्रसंग में पूजा की सामग्रियों में वसन्त का आरोप (15/8/1-6) कर भावों की तीव्र व्यंजना की गयी है। उत्प्रेक्षा:- जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना या कल्पना की जाए वहाँ उत्प्रेक्षालंकार होता है। नारद को हरि एवं बलभद्र के बीच खड़ा देखकर कवि कल्पना करता है-.. हरी-वलहद्दइँ मज्झे मुणिंदु णं कण्णत्तुलं भरे संठिउ चंदु । –1/15/2 हरि और बलभद्र के बीच मुनि नारद ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानों सुवर्ण-तुला के मध्य चन्द्र ही स्थित हो। सूर्योदय-सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय के वर्णन-प्रसंग में भी कवि ने सुन्दर उत्प्रेक्षाओं की उद्भावना की है। यथा कंकेल्लहँ पत्तुव अरुण हत्तुब दिसि गणिहे, णं तहि मुह-मंडउ कुंकुम पिंडिउ घण-थणहे। अवरणहइँ णिवडतई सूरे संझा-रत्त लित्त जहिं सूरइँ, तणु पक्खालणत्थ तहि चल्लिउ णं अप्पउ जलरासिहि बोल्लिउ।। -6/19-22 इसी प्रकार सक्मिणी और रति के सौन्दर्य वर्णन एवं प्रद्युम्न तथा कृष्ण की वीरता के प्रसंगों में भी कवि ने अनेक सुन्दर उत्प्रेक्षाओं की योजना की है। भ्रान्तिमान्:--- जहाँ रूप, रंग, कर्म आदि की समानता के कारण एक वस्तु से अन्य किसी वस्तु की चमत्कार-पूर्ण भ्रान्ति हो जाए तब वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। यथा— रानी सत्यभामा उद्यान में श्वेत-वस्त्रधारिणी रूपिणी को वनदेवी समझ कर उसकी स्तुति एवं आराधना करती है। इस प्रसंग में कवि ने भ्रान्तिमान् अलंकार की सुन्दर योजना की है। देखिए- किमे साविदेवी सुउज्जाणसेवी तहो पाय पोम्मा, णुया तीए रम्भा। सिरेणाविऊणं पर्यपेय णूणं ।। .-3/8/3-12 सन्देह:- रूप. रंग आदि का सादृश्य होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने से सन्देहालंकार होता है। नारायण—कृष्णरुक्मिणी के अप्रतिम-सौन्दर्य को देखकर सन्देह में पड़ जाते हैं और सोचले हैं कि यह गायत्री है या लक्ष्मी अथवा सरस्वती? कहीं यह बुद्धि, सिद्धि, गौरी, शान्ति, कीर्ति या शक्ति तो नहीं है? यथा-. किं सुरकुमारि कि लच्छि किण्णु गंधारि गोरि । कि बुद्धि-सिद्धि-कित्ति-सत्ति-सावित्ती-सरासइ-संति-सत्ति ।। -211 अतिशयोक्तिः– जहाँ पर किसी वस्तु का वर्णन बढ़ा चढ़ा कर किया जाय, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। कवि ने प्रद्युम्न के सोलह लाभ एवं युद्ध का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण क्रिया है:
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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