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________________ 50] महाफा सिंह विरउ पजुषणचरित हले पेक्खु-पेक्खु खज्जति सास । .-(1/8/5) जहिं सरवरे-सरवरे कंदोट्टईं। -1/711) यहाँ एक ही अर्थ में पेक्खु-पेक्खु एवं सरवरे-सरवरे की आवृत्ति से भाव-सौन्दर्य की अभिवृद्धि हुई है। अत: यहाँ पुनरुक्ति अलंकार है। वीप्सा:- क्रोध, शोक आदे मनोवगो को प्रभावित करने के लिए जहाँ शब्दों की पुनरावृत्ति होती है, वहाँ यह अलंकार होता है। यथा हा वच्छ-वच्छ कुवलय दलच्छ पइँ पेछमि कहि हउँ सेय तुच्छ। ___ हा बाल-बाल अलि णीलबाल करयल जिय रत्तुप्पल सुणाल ।। -4/5/10-11 उक्त पद्य में पुत्र शोक की अभिव्यंजना के लिए वच्छ, बाल और 'हा' वर्ण की आवृत्ति वीप्सा की योजना करती है। इसने शोकोद्गार को मूर्तरूप प्रदान किया है। उपमा:-. अर्थालंकारों में उपमालंकार को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। सादृश्यमूलक अलंकारों का तो इसे सर्वस्व माना गया है। इस अलंकार में किसी वर्ण्य-वस्तु की उसके किसी गुण, क्रिया या स्वभाव-विशेष आदि की समानता के कारण किसी अप्रस्तुत वस्तु से तुलना की जाती है। प०च० में इस अलंकार का अनेक स्थलों पर सुन्दर संयोजन हुआ है। यथा--- एक्कहि वयणुल्लउ णिरुवमउ अणेक्कहिँ छण ससहर समउ। एक्कहिमुहँ सरल पुणु णवणु अणेक्कहो उक्कोइय मयणु । एक्कहि वर कंछ कंबु हणइँ अणेक्कहे रूउ जि जगु जिण। 3/11/2-5 सिहिगल अलि तमाल सम कुंतल । [2/1/3, इसमें रुक्मिणी और सत्यभामा के रूप-सौंदर्य की तुलना कवि ने अनेक उपमानों से की है। इसी प्रकार रवि की रानी, चन्द्रमा की रोहिणी तथा इन्द्र की पौलोमी द्वारा राजा अरिंजय के साथ रानी प्रियवदना के शोभित होने का चित्रण किया गया है.... रेहइ पउलोमी इव सक्कहो रविहि रपण रोहिणिव ससंकहो। -51118 उपमेयोपमा:-- जहाँ पद में उपमेय की प्रधानता एवं उपमान की हीनता प्रदर्शित की जाय वहाँ उपमेयोपमा अलंकार होता है। कवि ने रुक्मिणी के श्रेष्ठ सौन्दर्य का वर्णन करने के लिए इसी अलंकार का प्रयोग किया है। यथा— ससि सकलंकु कमलु खणे वियसइ अणुवमु वयण पंकयं । -2/10/1 अर्थात शशि तो कर्लक सहित है तथा कमल क्षण में विकसित होता है और नष्ट हो जाता है। किन्तु इसका मुख-कमल दोनों की उपमा रहित अनुपम है अर्थात् मुख कलंक रहित और सदा विकसित रहता है। हीनोपमा:--- कवि सिंह में उपमा के चित्रण में हीनोपमा अलंकार का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। यथा पणमिय चलण-कमल रूवए कह । वण देवियइमि वणदेवय जह। -14/1/10 कनकमाला रूपिणी के चरण कमलों में किस प्रकार प्रणाम करती है? इसी प्रकार, जिस प्रकार कि वनदेवता, वनदेवी के चरणों में प्रणाम करता है। वनदेव के द्वारा बनदेवी को प्रणाम करने के कारण यहाँ हीनोममः-अलंकार है। ___ रूपक:- जत्व उपमेय में उपमान का निषेध रहित आरोप किया जाय तो रूपकालंकार होता है। समुद्र में नायक का आरोप कर कवि कहता है कि वह अपनी चंचल-तरंग रूपी विशाल भुजाओं से द्वारका के नितम्ब-तट को दूर करता हुआ द्वारका रूपी परस्त्री के संग के भय से दूर हट जाता है। यथा----
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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