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________________ प्रस्तावना [49 होता है, अत: भामह ने उन्हें काव्य-शोभा का आधायक-तत्व बताया है।' दण्डी ने इसे काक्ष्य के शोभावर्द्धकधर्म के रूप में माना है। यथा-काव्य शोभा करान धर्मालंकारान प्रचक्षते। ____ अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए ही नहीं, अपितु भावों की अभिव्यक्ति के लिये भी विशेष द्वार माने गये हैं। भाषा की पुष्टि तथा राग की परिपूर्णता के लिए वे आवश्यक उपादान के रूप में मान्य हैं। इन अलंकारों को दो भागों में विभक्त किया गया है—शब्दालंकार एवं अर्थालंकार। प०च० में शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों के ही प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक एवं श्लेषालंकार प्रमुख है। अपभ्रंश-काव्य की यह प्रमुख विशेषता है कि उसमें बिना किसी आयास के स्वत: ही अनुप्रासों का आयोजन होता चलता है। उसमें वाक्यों में वर्गों की आवृत्ति एक से अधिक बार होती है । यथा--- जहिं सरवरे-सरवरे कंदोट्टई परिमल वलहइँ अइ सुविसट्ट।। (17/]) यहाँ सरवर-सरवर एवं अन्य पदों में अनुप्रासालंकार है। इसी प्रकार केयूर-हार कुंडल धरहें कण-कण कणंत कंकण-कराहँ (1, 13, 4) एवं 8/12/1, 8/15/12 आदि में अनुप्रास की सुन्दर योजना की गयी है। यमक:- जहाँ एक या एक से अधिक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हों एवं उनका अर्थ भी प्रत्येक बार भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है। यथा— जाउ तत चारु कणयप्पह कणयरहहो राणी कणयप्पह । यहाँ 'कणमप्पह' शब्द के दो अर्थ हैं, प्रथम का अर्थ है-'स्वर्ण की प्रभा के समान और दूसरे कणयप्पह' पद का अर्थ है 'राजा कनकरथ की रानी कनकप्रभा ।' इसी प्रकार बाल-ताल (4/5'11. सिंगर पिएंगइ 11/17/3), पडुल- पड्डुल (6/17/4) वसुन्धरा, वसुन्धर! (6/3/3) में भी यमक अलंकार दृष्टव्य है। श्लेष:- वाक्य में किसी शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर भी उसके अर्थ एक से अधिक हों, तो वहाँ फ्लेषालंकार होता है। इस अलंकार के द्वारा काव्य में विशेष चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। यथा-.. जहिं सुपिहुल-रमणिउँ मंथर-गमणिउँ कय-भुअंग सहसंगिणिउँ। सच्छंवर-धारिउ जण-मण-हारिउ पण्णत्तिय व तरंगिणिउँ।। -1/8/9-10 यहाँ पर कवि ने एलेष में नदी-वर्णन करते हुए कहा है कि स्वच्छ-वस्त्र धारण करने वाली, सुन्दर एवं सुपुष्ट रमण फलक वाली, मन्थर गति गामिनी तथा भुजंगी के समान वेणी वाली पण्य-स्त्रियों के समान ही वहाँ की नदियाँ भी स्वच्छ जलवाली अत्यन्त विस्तृत तटों वाली मन्थरगति से प्रवाहित होने वाली एवं भुजंगी के समान सहस्र धाराओं से युक्त थीं। यहाँ सच्छंवर, पिहल एवं भुअंग में इलेषालंकार है। ___इसी प्रकार भोज्जुअ विचित्तु विजहिफारु (3/9/6) पद में विजणहिफारु में श्लेष है। यह दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, एक तो व्यंजन वर्णों (क, ख, ग) के लिए और दूसरा विविध पकवानों के लिए। इसी प्रकार इरी (3/13/8), अद्धवरिसु (15/3/4) में भी श्लेषालंकार द्रष्टव्य है। पुनरुक्ति:- जहाँ काव्य की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए एक शब्द एक ही अर्थ में पुनरुक्त किया जाता है, वहाँ पुनरुक्ति-अलंकार होता है। यथा 1. रूपकादिरलंकारस्तधानबहुधरितः । न कान्तमपि निघूषं टिभाति निदाननम् ।। कालं० 11131 2.काव्य दर्श, 2|
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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