________________
48]
महाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिउ
हा पुत्त - पुत्त तुहु केण णियउ
हा वच्छ-वच्छ कुवलय दलच्छ हा बाल-वाल अलिणीलवाल
हा कंठु - कंठ उज्जय सुणास मोक्कल कल कोंतल तोडणेण विहुणिय त सिर संचालणेण
फुटइ सयसक्कर मज्झु हियउ । पइँ पेछमि कहिँ हउँ से तुच्छ । करयल जिय रत्तुप्पल सुणाल । हा सवण विणिज्जिय मयण-पास कोमल-करयल-उरे ताडणेण ।
पाणियल धरणि अप्फालणेण ।। 4/5/9-14
करुण रस का चित्रण कवि सिंह की अपनी विशेषता है। उनके काव्य के हृदय का तार मानों करुण की तन्त्र से ही निर्मित है । हृदयाकाश में अब वेदना के मेघ घनीभूत होकर आँसुओं के रूप में बरस पड़ते हैं, की तब हृदयाकाश स्वच्छ और निर्मल हो जाता है। प्रस्तुत काव्य में यही स्थिति रुक्मिणी की है। उसके हृदय तीव्र वेदना ने आँसुओं के द्वार का नियन्त्रण तोड़ दिया है। प्रद्युम्न के दीक्षा प्रसंग में भी माता रुक्मिणी एवं पिता कृष्ण के विलाप में करुण रस की सरिता प्रवाहित हुई है (15/20/8-20)। इस कारुण्य रस की धारा प्रारम्भ में तो वेगवती वर्षाकालीन धारा के समान उद्दाम गति से प्रवाहित हुई है, किन्तु फिर धीरे-धीरे मन्द पड़ जाती है और अन्त में उसमें निर्वेद और त्याग की शरत्कालीन शान्ति तथा पुण्य की प्रसन्नता छा जाती है । यथा-. सच्चहाम रूविणि सिय सेविहिं सुहइँ समउ अट्ठ- महएविहिं ।
गहिय व रायमइ णवेविणु भिष्णु सरीरु जीउ मण्णेविणु ।। - ( 15/21/15-16)
इस सन्दर्भ में स्थायी भाव शोक है, आलम्बन माता-पिता, उद्दीपन वियोग तथा रोदन आदि संचारी भाव हैं। शान्त - रसः - संसार की अनित्यता का अनुभव अथवा तत्व - जिज्ञासा एवं तत्वज्ञान से उत्पन्न निर्वेद शान्तरस की व्यंजना कराता है ।
प०च० में अंगीरस के रूप में शान्तरस की उद्भावना हुई है। उक्त काव्य ग्रन्थ के एतद्विषयक निम्न प्रसंग महत्वपूर्ण ..
अग्निभूति - मरुभूति (5 / 11 ), सुलोचना (6/6), पूर्णभद्र - मणिभद्र (6/7), राजा मधु-कैटभ (7/4), राजा कनक (8/1), राजा हिरण्य ( 8/3), राजा वरदत्त ( 15 / 12 ) एवं प्रद्युम्न, शम्बु, भानु, अनिरुद्ध तथा आठ महारानियाँ (15 / 21)।
उपर्युक्त प्रसंगोपात्त पात्र संसार की अनश्वरता एवं भौतिक सुखों की क्षणिकता देखकर वैराग्य से भर उठते हैं और उनका हृदय वैराग्य- मूलक शान्तरस से आप्लावित हो जाता है । यह निर्वेद तत्वज्ञान मूलक होता
है ।
इन प्रसंगों में स्थायी भाव निर्वेद, संसार की असारता का बोध, आलम्बन, विभाव, उपदेश, अध्यात्म, प्रवचन आदि उद्दीपन। संसार के त्याग की तत्परता, पंचपरावर्तन आदि अनुभाव एवं मति, धृति तथा स्मृति संचारी भाव हैं। शान्त रस की स्थित में विषय-सुख का अभाव होने से आत्म-सुख की समृद्धि होती है।
(4) अलंकार - योजना
भावों की उत्कर्षता का चित्रण तथा वस्तुनिष्ठ रूप गुण एवं क्रिया की तीव्रानुभूति कराने में सहायक होने वाले उपादानों को अलंकार की संज्ञा प्रदान की गयी है। अलंकार योजना से चूँकि काव्य में सौन्दर्य का समावेश