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मष्ठाका सिंह विरङ्गाउ पज्नुण्णचरिउ
[अ.प्र.8/1
गुरु णर पुणो पउत्तं पवियप्पं धरसि पुत्त मा चित्ते । गुणिणो गुणं लहेविणु जइ लोउ दूसणं पवइ ।। 8 ।। को वारइ सविसेसं खुद्धो खुद्धत्तणमि सिव-वभो।। सुधणो छुडुमभत्थो असुखं वो णिय सहावं च ।। 9।। संभवइ बहु विग्घमणु आणं सेय-मग्गि लग्गाणं।। मा होहि कज्जु सिढिला विरयहि कव्वं तुरंतो वि ।। 10।। सुह-असुहं ण विथप्पहि चित्तं धीरेवि ते जए धण्णा । परकज्जे परकज्ज विहडतं जेहिँ उद्धरियं ।। 11 || अमियमइंद गुरूणं आएसं लहिवि अत्ति इय कव्वं । णियमइणा णिम्मवियं णंदउ ससि दिणमणी जाम ।। 12 | को लेक्खइँ सम्म दुज्जीह दुज्जणं पि असुहगरं । सुपर्ण सुद्ध सहावं करमउलं रयवि पत्धामि ।। 13 || जं किंपि हीण-अहियं विउसा सोहंतु तं पि इय कव्वो। धिछत्तणेण रइयं खमंतु सव्वेहि मह गुरुणो।। 14 ।।
"हे पुत्र, गुरुजनों एवं महापुरुषों ने बार-बार यह कहकर प्रेरणा दी है कि चित्त में किसी भी प्रकार का विकल्प धारण मत करो। यदि लोग दूषण भी दें, तो भी गुणीजनों से गुणों को ही ग्रहण करो।" । 1 8।।
"बौने शिव एवं ब्रह्मा के विशेष बौने रूप को कौन रोक सकता है? धनियों को छोड़कर दरिद्रों की अभ्यर्थना के स्वभाव को क्या कहा जाय?" ।। 9।।
"श्रेयो मार्ग में लगे हुए मनुष्यों के लिये अनेक विघ्नों के आने की सम्भावना है!। अत: (हे कविवर, मेरे द्वारा बतलाए हुए) कार्य में शिथिल मत होना। अब तुरन्त ही निर्दिष्ट-काव्य की रचना करो।" ।। 10||
"संसार में वे धीर-बीर धन्य हैं, जो अपने चित्त में (कार्यारम्भ के समय किसी भी प्रकार के) शुभ-अशुभ का विकल्प नहीं रखते तथा जिनके द्वारा परोपकार के निमित्त दूसरों के बिगड़ते हुए कार्यों का उद्धार किया जाता
गुरु अभियचंद का आदेश प्राप्त करके तत्काल ही मैंने इस काव्य का अपनी बुद्धि-पूर्वक निर्माण किया। यह (काव्य) चन्द्र-सूर्य के अस्तित्व-काल तक नन्दित होता रहे।। 12 ।। ___अशुभकारी, द्विजिह्व एवं छली-कपटी दुर्जनों का लेखा-जोखा कौन करे? शुद्ध स्वभाव वाले सज्जनों को हाथ जोड़ कर पज्जुण्ण-चरिउ की रचना करता हूँ।। 13।।
गुरु के आदेश से मुझ धृष्ट द्वारा रचित इस काव्य में जो कुछ भी हीनाधिक (लिखा गया) हो, विद्वान् लोग उनमें शोधन कर लें तथा (उन त्रुटियों के लिए) सभी जन मुझे क्षमा प्रदान करें।। 14 ।।