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________________ अप्र.7.21] माहाका सिंह विराउ पज्जुण्णचरित [347 जो उहय पवर वाणी-विलासु एवंविह बिउसहो रतासु । 10 तहो पणइणि जिणमइ सुद्धसील सम्मत्तवंत णं धम्मसील । कइ सीहु तहि गभंतरम्मि संभविउ कमलु जिह सुरसरम्मि। जण-वच्छलु सज्जणउ णिय-हरिस सइ संतु तिविह-वइराय सरिसु । उप्पण्णु सहोयरु तासु अवरु | णामेण सुहंकरु गुणहं पवरु। साहारणु लहुवउ तासु जाउ धम्माणुरत्तु अइ दिट्ट काउ। तहो अणुवउ महएउ वि सुसार सविणोउ विणंकु सुसमरधार। जा वच्छहिं चत्तारिवि सुभाय परउवयारिय जण-जणियराय । एक्कहि दिणे गुरुणा भणिउ वच्छ णिसुणहि छप्पय कइराय दच्छ । भो वाल-सरासइ गुण-समीह किं अविण्योएँ दिण गमहि सीह। चउविह-पुरिसत्थरसोह-भरिउ णिव्वाहहिं इहु पज्जुण्ण-चरिउ । कइसिद्धहो विरयंतही विणासु संपण्णउ कम्मवसेण तासु । महु वयणु करहि किं तुअ गुणेण संतेण हुअ छाया समेण। घत्ता- किं तेण पहूअई बहु धणई जं विहलियहँ ण उपयरइ । कव्येण तेण किं कइणहो ज ण छइल्लह मणुहरइ ।। 7।। 20 भलीभाँति विद्वानों की सेवा में रत था – (एसा बुध रल्हण नामक विद्वान् पुरुष हुआ?) उसकी प्रियतमा का नाम जिनभति था, जो शुद्धशीला, सम्यक्त्व-सम्पन्ना एवं धर्मशीला थी। जिस प्रकार सुरसरि—गंगा से कमल का जन्म होता है, उसी प्रकार जिनमति की कोख से ही कवि सिंह का जन्म हुआ, जो जन-वत्सल, सज्जनों के मन में हर्ष उत्पन्न करने वाला तथा श्रुति-शास्त्रों में वर्णित त्रिविध-वैराग्य के समान था। उस कवि सिंह का दूसरा सहोदर भाई भी उत्पन्न हुआ, जो शुभंकर, इस नाम से प्रसिद्ध तथा जो प्रवर गुणों से युक्त था। उसके लहुरे (छोटे) भाई का नाम साधारण था, जो धर्म में अनुरक्त तथा शरीर से भारी दिखाई देता था। उससे छोटा भाई महादेव था, जो सार्थक नाम वाला, तथा विनोदी, विनयशील तथा समर को भलीभाँति धारण करने वाला (अर्थात् योद्धा) था। परोपकारी एवं लोगों के मन को आनन्दित करने वाले वे चारों सुन्दर भाई जब वहाँ समय व्यतीत कर रहे थे तभी एक दिन गरु अमियचन्द ने कहा "हे वत्स हे साहित्य-भ्रमर हे दक्ष कविराज सनो। हे बाल-सारस्वत, हे गुणग्राहक कवि सिंह, काव्य-रचना-विनोद किये बिना ही क्यों अपने दिन गँवा रहे हो? चतुर्विध पुरुषार्थ रूपी रसों से पूरित कवि सिद्ध द्वारा विरचित, किन्तु कर्मवश विनष्ट हुए इस प्रद्युम्न-चरित का निर्वाह कर उसे सम्पन्न कर दो। मेरे कथन से तुम इस कार्य को करो। तुम्हारी गुण रूपी छाया एवं परिश्रम से क्या यह कार्य पूर्ण नहीं होगा?" पत्ता- "उस प्रभुता से क्या लाभ और धन की अधिकता से क्या लाभ, यदि दुखियों एवं साधन-बिहीनों का उपकार नहीं किया जाय? उस काव्य से भी क्या लाभ, और उन कवि-जनों से भी क्या लाभ, यदि उनके द्वारा काव्य-रसिकों के मन का हर न किया जाय?" || 7।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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