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________________ 3461 महाकड़ सिंह चिरइउ पज्जुष्णवरित [अ.प्र. 12 अम्हाणं तं अणिंदं पविमल-सुहद देउ संसार-पारं ।। 4 ।। जादं मोहाणुबंध सारुह-णिलये किं तवत्थं अणत्थं, संतं संदेहयारं विवुह-विरमणं खिज्जदे दीयमाणं । वाएसीए पवित्तं विजयदु भुअणे कव्व वित्तं पवित्तं. दिज्जतं जं अणंतं बिरयदि सुइरं गाण लाहं वदंतं ।। 5 ।। घत्ता- जं इह ह्रीणाहिउ काइंमि साहिउ अमुणिय सत्थ परंपरइं। तं खमउ भडारी तिहुअणसारी वाईसरि सद्दायरहं ।। 6।। दुवई जा णिरु सत्तहंग जिण-वयण-विणिग्गय दुह-विणासणी। होउ पसण्ण मज्झु सा सुहयरि इयर ण कुमइ नासणी।। छ।। परवाइय वायाहरु अछंमु सुअ-केवलि जो पच्चक्ख धम्मु । सो लयर महामुणि अगियचंदु जौ भन्न-णितहँ कहरवहँ चंदु । मलधारि देव पय-पोमि भसलु जंगम सरसइ सव्वत्थ कुसलु । तह पयरउ-निरु उवमहि पमाणु णिउ-कुल-णह उज्जोय-भाणु। से पार उतारने वाला अनिन्द्य एवं निर्मल सुख प्रदान करे।। 4 ।। ___मोह से अनुबन्धित होकर भी यदि कोई अरिहन्तदेव के मन्दिर में तप (काव्य-साधना) के निमित्त जाता है, तो उसमें अनर्थ ही क्या है? काव्य-रचना करने वाले के प्रति सन्देह में पडकर विद्वान्-कवि की जो कोई उपेक्षा करता है, उससे मेरा (कवि सिंह का) मन खिन्न हो जाता है। वाणी से पवित्र यह पवित्र वृत्तकाव्य (—पज्जण्ण-चरिउ) जिसका कि कथन, चिरकाल तक अनन्त-सूख का कारण बनकर ज्ञान-लाभ प्रदान करता है, भुवन में विजयशील बना रहे।। 5।। पत्ता- शास्त्र-परम्परा का विचार किये बिना ही मैंने प्रस्तुत काव्य में यदि कुछ हीनाधिक तध्य प्रस्तुत कर दिये हों, तो सभी के द्वारा आदर-प्राप्त हे भट्टारिके, त्रिभुवन में सारभूत, हे वागेश्वरी देवी, उन सभी त्रुटियों के लिए तुम मुझे क्षमा कर देना।। 6।। द्विपदी- जो निश्चय ही जिनेन्द्र-मुख से विनिर्गत है, सप्तभंग स्वरूपा तथा दुख विनाशनी है, ऐसी वह सुखकारी सरस्वती देवी मुझ पर प्रसन्न रहे। उसके सम्मुख अन्य कोई कुमति का नाश करने वाली (देवी) हो ही नहीं सकती।। छ।। परवादियों के बादों का हरण करने वाले, छद्म रहित, श्रुत-केवली की परम्परा को प्राप्त तथा धर्म की प्रत्यक्ष-मूर्ति रूप वे महामुनि अमियचंदु (अमृतचन्द्र) जयवन्त रहें, जो भव्य समूह रूपी कमलों के लिये चन्द्रमा के समान, सरस्वती के अनन्य भक्त तथा समस्त शास्त्रों एवं उनके अर्थों में कुशल, मलधारीदेव-माधवचन्द्र के चरण-कमलों के लिए भ्रमर के समान थे.-. उन्हीं अमियचंद (अमृतचन्द्र) के चरणों में निरन्तर रत रहने वाले, अपने कुल रूपी आकाश को उद्योतित करने वाले प्रखर सूर्य के समान अनुपम, स्वाभिमानी तथा जो वाणी-विलास में श्रेष्ठ एवं पारंगत था, जो
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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