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________________ 344] महाकद्र सिंह विराज पज्जुण्णचरिउ [15.28.5 लग्गइ गउच्छुह तण्हवि अणि जहिं पियर सहोयर णउ मणिछ। अणुदिणु उभ्याइय विसम मयणु जहिं कहिमि ण दीसइ जुवई वयणु। जहि चिंत ण कावि ण कोवि सत्तु आणंदु ण जहिं कुइ कासु मित्तु। पसरइ ण सोउ जहिं अप्पसत्यु । छइ इक्क सरुवें जीउ तेत्यु। गय ए चत्तारि वि जहिं अविग्धु महु दिंतु णाणि तहिं गमणु सिग्धु । कम्मक्खउ जिण कम-कमल भत्ति। विहडउ म धम्म दहविह पवित्ति। सण्यास-मरणु संभवउ ताम सासय-पुरवरे पइसरमि जाम । पालिय जिणवर वय-णियम सयल सयसत्त महामुणे सोल-विमल । समभावि भाविवि भूय वागु णियमणे धरिवि परलोय मागु। कालावहि पाविवि अभयभव्व चविह आराहण सरेवि सव्व । __ परिहरिवि सरीरु सुभाणु सहु सव्वत्थ-सिद्धि थिय केवि लहु । घत्ता- सउहम्म पमुह सुर-मंदिरहँ गय सयल वि रेहति किह। णिय कम्म महा करि वर हणेदि अइ सहरिस णं सीह जिह ।। 308 ।। 15 मोह-ममता (जगाने) वाले प्रिय सहोदर भी नहीं होते। जहाँ प्रतिदिन मन में विषम काम-वासना उत्पन्न करने वाली युवतियों के मुख भी कहीं दिखायी नहीं पड़ते। जहाँ न तो कोई चिन्ता है न कोई शत्रु । जहाँ न तो कोई भौतिक आनन्द है और न कोई किसी का मित्र । जहाँ अप्रशस्त शोक का प्रसार नहीं है, वहाँ जीव एक ही स्वरूप में रहता है। इन चारों (प्रद्युम्न, भानु, शम्बु एवं अनिरुन) ने शीघ्र ही उस गति में गमन किया। जहाँ ज्ञानी जन अविघ्न रूप से अत्यन्त घोतित होते रहते हैं। (ग्रन्थकार कहता है कि...-) जिनेन्द्र के चरण कमलों की भक्ति से हमारे कर्मों का भी क्षय होवे, हमारे दशधर्मों की प्रवृत्ति का विघटन न होवे। दश-धर्म भावना पूर्वक संन्यासमरण प्राप्त होवे और उसीमें मैं भी शाश्वत नगरी-मोक्ष नगरी में प्रवेश करूँ। ___जिनवर द्वारा प्रतिपादित समस्त व्रत नियमों का पालनकर निर्मल शीलव्रत धारण करने वाले 700 महामुनि समस्त प्राणियों के प्रति समता की भावना भाकर अपने मन में परलोक-मार्ग को धारण कर कालावधि प्राप्त कर समस्त निरहंकारी एवं भव्य, वे चतुर्विध आराधनाओं का स्मरणकर शरीर छोड़कर निर्वाण-सुख को प्राप्त हुए। सुभानु के साथ कोई-कोई तत्काल ही सर्वार्थसिद्धि में जाकर स्थिर हो गये। घत्ता- और अन्य कुछ सौधर्म प्रमुख देवालयों को प्राप्त हुए। वे सभी किस प्रकार सुशोभित हुए? उसी प्रकार, जिस प्रकार कि अपने कर्मरूपी महागज को मारकर अत्यन्त हर्षित मुक्त जीव रूपी सिंह सुशोभित होता है।। 308।।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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