SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15.28.4] महाकद सिंह बिरइज फजुण्णचरित [343 णिच्च-गोत्तु वेयाणिउ असाउ वि दोसत्तरि पयडिउ एयाउ वि। दुचरिम समए अजोएँ घावि पुणरवि भाइ दुइज्जइ ठाइवि। तहिं तेरह कम्म हुए भाउवि साया-वेयणीउ मणु आउवि । मणुय गइवि मणुय पुवी विय अचिरें पंचिंदर जाएवि जिय। तस सुहगादेज वि पज्जत्तउ वायर-जस कित्ती वणियत्तउ। तित्थयरत्त णाम गुरु गोत्तुति चरम समय कालेण णिहित्तुवि। देगलाण ठाण, विदायर तपादिह वि पंचासी आयउ। इय अड़याल सयहँ कम्मोहहँ खउ करेवि जग जण संदोहहँ। णह-केस मउ सरीरु चएविणु पाण विमुच्चा गइएँ गमेविणु। ठिउ अदेह पंतिउ अवगाहेवि दीवह दीउ मिलिउ णं जायवि । घत्ता- णिविसें सिद्ध सरूउ अठ्ठ महागुण क्तउ। संजायज पज्जुण्णु सासय-पउ संपत्तउ ।। 307।। (28) दुवई- भाणु जईसु संवु अनिरुद्ध वि णिग्गेवि कम्मपासहो । ___ गय तहिं जहिं ण वलिवि आविज्जइ अणुबम सुह णिवासहो।। छ।। णिहालसु परवसु कोवि णत्थि सुहु-दुहु ण इक्कु आरंभु अत्थि। धाउमउ देहु जहिं णउ हवेइ पीडति ण वाहिउ जमु ण णेइ। अन्तिम समय में अयोग को घातकर पुन: आतप एवं उद्योग नामकर्म प्रकृति को नष्ट किया। वहाँ 13 कर्म प्रकृतियों का हननकर साता वेदनीय में मनःस्थिति रहती है। ___ मनुष्य गति एवं मनुष्यगत्यानुपूर्वी में तत्काल पंचेन्द्रिय विषयों को जीतकर प्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्तक, बादर एवं यश:कीर्ति से छुटकारा पाया। तीर्थंकरत्व, नामकर्म एवं महान् गोत्र-कर्म को अन्त समय में नष्ट कर तेरहवें गुणस्थान में सुशोभित हुआ। इस प्रकार 63 एवं 85 कर्म-प्रकृतियाँ अर्थात् संसार को तप्त करने वाली 148 कर्मप्रकृति-समूह का क्षय किया। शरीर के नख, केश, दाढ़ी-मूंछ त्यागकर प्राणों का उच्चगति से गमनकर तथा अवगाहन कर वह अदेह (सिद्धों) की पंक्ति में जा बैठा। ऐसा प्रतीत हुआ मानों दीपक से दीपक जा मिला हो। घत्ता- निमिष मात्र में अष्ट महागुणधारी वह प्रद्युम्न सिद्ध स्वरूपी होकर शाश्वत पद को प्राप्त हो गया।। 307।। प्रद्युम्न के साथ भानु, शम्बु एवं अनिरुद्ध को मोक्ष-प्राप्ति द्विपदी- भानु, यतीश्वर, शम्बु एवं अनिरुद्ध भी कर्मपाश से मुक्त हो गये और वहाँ पहुँचे जहाँ से अनुपम सुख के निवास स्थल से कोई लौटकर नहीं आता।। छ ।। उस भानु, शम्बु एवं अनिरुद्ध में से कोई भी निद्रा एवं आलस्य के वश में न था। जहाँ सुख-दुःख भी न था और न एक भी आरम्भ। धातुमय देह जहाँ नहीं होती, जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होती, जहाँ यमराज भी किसी को उठा कर) नहीं ले जाता. जहाँ अनिष्टकारी क्षुधा और तृष्णा भी नहीं लगती। जहाँ
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy