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________________ 342] महाका सिंह विरइड पजुण्णधरिज [15.27.11 (27) दुबई— चङ समरहिं एम संवरेवि सु अप्पा-अप्प भावेणं । होइ वि देह मित्तु देहतरे रहियउ निय सहावेणं ।। छ।। गउ केवलि अजोइ ठाणंतरि लग्गु चउत्थइ झाणे सुहकरि । छिण्ण किउ णामें संभवियउ पंचासी पयडीउ वि खवियउ। तह ठाणेसु पढम भायंतरे विहुणिय कम्म खणे वाहत्तरि । देवगई वि देव पुब्बीसह पंच सरीर णाम णासिय तह । उरालियर विलिरियाहारस तेज कम्मु सयलहं सहारउ। एयह देहहँ बंधण णाम. पंच वि तोडियाइ मुणि काम। ताह वयहँ संघाय विधाइय पंच वि छह संठा सुछेझ्य । तिण्णि वि अंगोवंग पणासिय छह संहणाण खणखें णासिय । पंच-वण्ण रस-पंच अणिठ्ठिय सुरहि दुरहि दोगंध परिट्ठिय । संघटिट्य अठ्ठहँ फासहँ सहु मोन महापुरवर लद्धइँ लहु। अगुरम लहु उवघाउ वि पेल्लिउ परघाउवि उस्सासु पमेल्लिउ। अविहाय-विविहाय गइ मोडिवि अथिरतु वि धिरत्ति सहु फेडिवि । सुहु-दुह दुस्सरम्मि सुमराइउ पत्तेउ वि दुभगत्तु विभेइणु। अजस-अण्णादिज्जउ मुसूमूरिय णिमिण अपज्वरूवि संचूरिय। (27) प्रद्युम्न सिद्धगति को प्राप्त हो गया द्विपदी— इस प्रकार (वह प्रद्युम्न) चारों समयों में संवर कर अपनी ही आत्मा में आत्म-भाव से लीन रहा और स्वभावत: ही देह को आत्मा से भिन्न समझ कर देह में रहता रहा। ।। छ।। वह केवलि – प्रद्युम्न अयोगि गुणस्थान में पहुँचा और सुखकारी चतुर्थ शुक्ल ध्यान (व्युपरत क्रियानिवृत्ति) में जा लगा। वहाँ नामकर्म की सम्भावना को छिन्न किया तथा (उस कर्म की) 85 प्रकृतियों को खपा दिया । पुनः उसी गुणस्थान के प्रथम भाग में क्षण मात्र में ही 72 कर्म प्रकृतियों को नष्ट किया। देवानुपूर्वी के साथ देवगति तथा शरीर नाम-कर्म की 5 प्रकृतियों – औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस एवं कार्माण शरीर को आधारों सहित तथा इन शरीरों के 5 बन्धनों (यथा औदारिक बन्धन आदि) को उन कामदेव मुनिराज—प्रद्युम्न ने तोड़ डाला। उन शरीरों के 5 प्रकार के संघात के साथ 8 प्रकार के (कर्कश. मृदु आदि) स्पर्श को नष्ट कर शीघ्र ही मोक्ष रूपी महानगर की ओर उन्मुख हुआ। । ____ अगुरु लघु एवं उपघात को भी पैल हाला, परघात तथा उच्छ्वास नाम कर्म से भी अपना पिण्ड छुड़ा डाला। प्रशस्त एवं अप्रशस्त, विहायोगतियों को मोड़कर अस्थिर एवं स्थिर नाम-कर्म को नष्ट कर सुख (शुभ), दुख (अशुभ), दुस्वर, सुस्वर, प्रत्येक शरीर, दुर्भग शरीर, सुभग शरीर, अयशकीर्ति एवं अनादेय- नामकर्म को नष्ट कर पर्याप्ति एवं अपर्याप्ति नामकर्म को चूर-चूर कर दिया। नीच-गोत्र तथा असातावेदनीय की 9 प्रकृतियाँ हैं।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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