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15.26.22]
महाकद सिंह विरड पजुण्णचरित
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विसम कम्म सम करिवि पयत्तइँ णाणिउ णाण-सरूवइँ चिंत। इय बोलीणु कालु किर जावहिं आउ पमाणु मुणिवि मुणि तामहि । रेवयसिहरिहे सिहरि चडेप्पिणु वज्जंकासणु लहु वंधेविणु। देहहो देहिउ दंडायारें
णीसारिउ इसिणाहय मारें। एक्के समएँ सुछ तुरंतउ चउदह-रज्जु पमाणु महंतउ । निरु-निम्मलयरु सहइव केहउ भुवणत्तय आहारुव जेहउ। वीय समइँ वे भायहँ भिण्णउँ जग-मंदिर कवाडु णं दिण्णउँ । तइयइँ समयइँ पयरु करेविणु थिउ चउत्थे सयलु वि पूरेविणु । होइ सव्वंगउएणा वत्थे
एक्कु समउ अप्या परमत्थें। पर समएहिं सब गउ अक्खिउ एरिसु अण्णाणेहि ण लक्खिर । झाडेवि कम्म-असेस-पएसह
जाणइ कवण सत्ति जोईसहँ। दो पंचसु उडु मासिय जे थिय आउ पमाणइ ते तिण्णि वि किय । नाम गोत्तु वेयाणिउ दुहायरु
तें महियउ कय भव मल सायरु। घत्ता- जग पुरणु परिहरिवि वल वि पयरु किउ अइगुणु ।
करेवि कवाडायारु दंडायारें थिउ पुणु ।। 306 ।।
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प्रयत्नपूर्वक ज्ञान-स्वरूप का चिन्तन किया।
इस प्रकार काल व्यतीत कर तथा उसी समय अपनी आयु का प्रमाण जानकर वह मुनि रैवतक पर्वत के शिखर पर चढ़ गया तथा शीघ्र ही पर्यकासन बाँधकर काम विनाशक उस ऋषिनाथ प्रद्युम्न ने देह को दण्डाकार बनाकर काम-बाधा को भी निकाल बाहर किया। एक ही समय में (उसके आत्म प्रदेश) तुरन्त ही चौदह राजू प्रमाण फैल गये। उस समय वह निर्मलतर प्रद्युम्न किस प्रकार सुशोभित हुआ? उसी प्रकार जिस प्रकार भुवन-त्रय का रूप (मानचित्र) सुशोभित होता है। दूसरे समय में उसके आत्म-प्रदेश दो भागों में विभक्त हो गये । तब वह ऐसा प्रतीत होने लगा मानों जगरूपी मन्दिर में कपाट ही दे दिये गये हों। तीसरे समय में उन्हें प्रवर बनाकर तथा चौधे समय में उन्हें पूर्ण कर स्थिर हो गया। इस अवस्था में तथा आत्मा के परमार्थ का विचार का वह एक समय में ही सर्वांगपूर्ण हो गया। पर-समय में उसे सर्वगत कहा गया है, किन्तु यह अज्ञानी जनों द्वारा नहीं देखा जा सकता। उसने समस्त कर्म-प्रदेशों को झाड़ डाला (सचमुच ही), योगीश्वरों की इस प्रकार की शक्ति को कौन जान सकता है? दसमास तक जो भी स्थिर होकर तप करता है वह आयु के प्रमाण को तृण के समान तुच्छ कर सकता है। दुःखदायी एवं भव-मल रूमी समुद्र के समान नाम, गोत्र एवं वेदनीय कर्म का उसने मधन कर डाला। पत्ता- जग को पूरे रूप में छोड़कर उसने अपने आत्मबल को कई गुना बढ़ाया और दण्ड- कपाटावस्था को
प्राप्त हो कर स्थिर हो गया।। 306 ।।